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वर्णन किया है, वह सहृदय श्रोता को संसार और उसके कारण क्रोधादि पर खेद - ग्लानि पैदा करा दे, ऐसा है। वर्णन भी इतना रोचक है कि बार-बार पढ़ने को दिल करे । और पुनः पुनः पढ़ने से वैराग्य में अभिवृद्धि हो, ऐसा है।
अब धर्मनंदन आचार्य महाराज पुरंदरदत्त राजा के आगे संसार के पांचवें कारण 'मोह' का वर्णन करते हुए कहते हैं,
मोहे कज्जविणासो, मोहो मित्तं पणासए खिव्वं मोहो सुगई रुंभइ, मोहो सव्वं विणासेइ 11 गम्मागम्म-हियाहिय-भक्खाभक्खाण जस्स ण विवेगो बालस्स व तस्स वसं मोहस्स ण साहुणो जंति ॥
· अर्थात्, मोह में कार्य-नाश होता है, मोह से मित्रता नष्ट होती है, मोह सद्गति को रोकता है, मोह सर्वनाश करता है, जिसमें गम्य- अगम्य, हित-अहित व भक्ष्य - अभक्ष्य का विवेक नहीं, ऐसे मोह - सर्प के वश साधुजन नहीं बनते ।
मोह अर्थात् अज्ञान - अविवेक- मूढ़ता, ऐसी कि जिसके कारण जीव अगम्य परस्त्री के भोग में पड़ता है, अहितकारी हिंसादि प्रवृत्ति करता है, अभक्ष्य, मांस-मदिरा आदि उड़ाता है । काम वासना, विषयवासना, रसवासना आदि वासनायें अनादि काल से सही हैं । परन्तु मानव जैसे उच्च भव में विवेक आने के बाद जीव अनुचित भोग का त्याग करता है, अनुचित प्रवृत्ति बंद करता है, अभक्ष्य खान-पान से दूर रहता है, परन्तु विवेक जगा हो, तभी यह होता है। विशिष्ट प्रज्ञा आयी हो, वहाँ स्वयं पर यह नियंत्रण होता है कि 'मुझे यह - यह चीज तो खानी ही नहीं चाहिये, ऐसा तो मुझे करना ही नहीं चाहिये ।' यदि ऐसा विवेक, ऐसी प्रज्ञा न हो, तो यह मोह है, मूढ़ता है, संज्ञावशता है, अज्ञानदशा है। मोहवाली बुद्धि संज्ञा है, तो विवेकवाली बुद्धि प्रज्ञा है ।
कुदरत ने जो भी बनाया है, वह सब खाना, भोगना जरुरी है ?
अज्ञानी-मूढ़ जीव तो यही मानता है कि 'सब कुछ खाया जा सकता है, सब कुछ भोगा जा सकता है, सब कुछ किया जा सकता है।' ऐसे लोग दलील करते हैं कि 'यदि कोई चीज खायी नहीं जाती है, भोगी नहीं जाती है, तो भगवान ने या कुदरत ने बनाया ही क्यों ? अंडे-मांस-कंदमूल आदि खाद्य पदार्थ बनाये हैं, इसीलिये खाये जा सकते हैं, परस्त्रियाँ बनायी हैं, इसलिये भोगी जा सकती है, हिंसादि आचरण की वस्तु हैं, इसलिये इनका सेवन किया जा सकता है
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कहिये, यह कैसी दलील है ? मूर्खता - मूढ़ता भरी ही न ? कहते हैं, 'आलू बनाये ही क्यों ? खाने के लिए ही न ? इसीलिये आलू खाने में कोई हर्ज नहीं।' अरे भाई ! वैसे देखा जाय, तो अफीन व सोमल जहर भी बनाया है, तो यह भी खाया जा सकता है न ? तेरे शरीर में मांस बनाया है, तो वह भी खाया जाना चाहिये न ? कुदरत तो विष्ठा भी बनाती है,
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