________________
आने पर उसके जीवन में कंहीं अनर्थ न कर दे, इस आशय से पूरी तरह से उसे नष्ट कर दिया । किसीको ऐसी चीज का दान भी नहीं। ऐसी भारी वस्तु पचानेवाले कहां से लाये जायें ?
इससे पहले यही धनदेव एक बार नदी के किनारे के पास से गुजर रहा था, वहां एक गिरिखंड़ टूट पड़ा, वहां एक कोटर में रत्न का चरु गड़ा हुआ देखा। धनदेव लोभ से घबरा उठा, 'शायद यहाँ खड़ा रहुं और लोभ जगा तो ?' वह वहाँ से चल पड़ा। घर आकर शाम को श्राविका से बात की कि मैंने तो इस तरह रत्न का चरु देखा, परन्तु वह लाऊं, तो परिग्रह परिमाण व्रत तो टूटे ही, इसके लोभ के पीछे कई पाप, संताप व अनर्थों का पार न रहे । इसीलिये ऐसे ही रखकर जल्दी आ गया । श्राविका भी कैसी पापभीरु होगी कि उसने पति की त्याग की बात का समर्थन किया । 'आपने वह न लाकर बहुत अच्छा किया ।' श्रावक-श्राविका लोभ से न डरे, तो और कौन डरेगा ?
मानव भव में से भव-परंपरा का सर्जन न करना हो, तो लोभ से घबराते रहना पडता है ।
मानव भव में जिन की आज्ञा को अपना मुख्य धन व मुख्य स्वामी बनाना हो, तो बाह्य लोभ से डरते रहना पड़ता है ।
यदि धन या मान-सन्मान का लोभ आ गया, तो स्वयं के मन में जिनाज्ञा सर्वस्व नहीं लगेगी और ऐसे आचरण होंगे कि जिनसे भव-परंपरा बढ़ जाय । अन्दर घुसा हुआ लोभ ऐसा बुलवायेगा व मनवायेगा कि 'प्रभु की आज्ञा तो ठीक, परन्तु यहाँ लोक के बीच जीना है या मर जाना है ? अच्छा मान मिले, पैसे मिले, खाने का मिले, तो जीना सफल है। नहीं तो जीते हुए भी मृत जैसे हैं'। बस, लोभ के इस हिसाब में न्याय-नीति, अच्छाबुरा, भक्ष्य - अभक्ष्य, पेय-अपेय, किसीका विचार नहीं आता। जिनाज्ञा की कोई परवाह या विचार किये बिना झूठ - अनीति, माया-विश्वासघात, अभक्ष्य भक्षण, अगम्य गमन आदि खुशी से करेगा। जीवन में लोभ को प्रधानता देने पर जिनाज्ञा गौण बन जाती है । जिसको पैसे ही प्राण लगें, मान-सन्मान प्राण लगें, वे भला जिनाज्ञा को प्राण मानेंगे ? उन्हें इसी बात का भान नहीं कि
'धन-सन्मान - खानपान - रंगराग को तो अनन्त बार प्राण माना, जिनाज्ञा को प्राण बनाने का यह अति दुर्लभ अवसर यहाँ मिला है। यह अवसर खोकर मरने के बाद फिर से कहाँ मिलनेवाला है ?
जिनाज्ञा को प्राण माने बिना सम्यक्त्व नहीं पाया जा सकता। फिर ऊपर के धर्म की तो बात ही क्या ? जिनाज्ञा को जीवन - सर्वस्व मानना हो, तो लोभ - डाकू को हृदय में घुसने मत देना । नहीं तो यह लोभ यह हाल बनायेगा कि आप भान भूला बैठेंगे 1 देखिये, लोभदेव लोभ के कारण जिस प्रकार भान भूला बैठा है और कैसे भयंकर
१३८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org