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हों, अथवा परदेशी या बाबाजोगी की कोतवाल तलाशी लेता हो, और माल निकलने पर शक करें तो आफत में फंस जाना पड़े। तो तू ऐसा कर-रत्न बाँधा हुआ कपड़ा यहीं रख जा।'
स्थाणु तो सरल-हृदय है। अत: उस पर विश्वास रख कर रत्नों की गठरी उसे सोंप कर बाजार में गया। कहते हैं न कि 'सोना देख मुनिवर डिगें!' मतलब? वैसे देखा जाय तो हुए बडे योगी में माया नहीं होती, फिर भी सोना देखकर उसमें लोभ जाग्रत हो सकता है,
और लोभ जगने के कारण माया कर उसे प्राप्त करने को ललचा जाय । जब कि यह मायादित्य तो मूर्तिमान् माया ही है। उसे स्थाणु के रत्न हाथ में आने पर माया खेलने का मन हो इस में आश्चर्य ही क्या ? देखिये, इन रत्नों के लोभ में वह कैसा दगा खेलता है।
(रत्न, सोना, पैसा खतरनाक चीजे है :
इनके बिना आप को चलता न हो तो भी उन्हें अच्छी वस्तु न समझे । दीर्घकालीन रोगी को कई महीनों तक दवाई के बिना न चले तो भी क्या वह ऐसा मानेमा कि 'दवाई बहुत सुन्दरं- खाने योग्य है ?' विश्वासघातक या घमंडी नौकर निकाला न जा सके, और उसे रखे बिना न चलता हो, उससे काम भी लेना पड़ता हो, फिर भी क्या वह अच्छा लगता है ? या खतरनाक लगता है ? पैसे के विषय में भी यह समझ रखिये :
पैसा खतरनाक न लगने से होने वाले नुकसान :पैसा खतरनाक नहीं मालूम होता इसी कारण, (१) इसके लिए अनीति की जाती है। (२) झगड़े किये जाते हैं,
(३) उनके ब्याज से आराम से जीया जा सके, फिर भी उन्हें बढ़ाने के लिये पाप किये जाते हैं। पैसे खतरनाक नहीं लगते, इसीलिये
(४) दया - दान - सुकृत - परोपकार के सुअवसरों पर चेहरा बिगड़ जाता है। (५) सुकृत में से छूटने का मौका खोजा जाता है।
(६) जिस धर्म-कार्य में पैसे खर्च करने पड़ते हों, उसके लिये कहा जाता है - 'इसकी क्या आवश्यकता है?' हो सके तो वह धर्म - कार्य उड़ा दिया जाता है और दूसरों को भी वह कार्य करने से रोकने में निमित्त बना जाता है।
(७) अवसर आने पर विश्वासघात भी किया जाता है और मानवता भुलाकर जंगली बाघ जैसी माया भी की जाती है।
(८) कर्मादान के भयंकर धंधे किये जाते हैं।
इसके ढेर सारे उदाहरण आपको मिलेंगे। आज पैसों की खातिर अनीति, अन्याय, टेक्स-चोरी आदि कितना चल रहा है ? रिश्वतखोरी कितनी बढ़ गयी है ! विद्यालयों में अध्यापक ठीक से पढ़ाते नहीं, परन्तु पैसों के खातिर प्राइवेट ट्यूशन में एकदम अच्छी
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