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स्थाणु का क्या हुआ ?
उस तरफ स्थाणु धर्मशाला में मायादित्य के इंतजार में बैठा था कि 'मित्र अभी आयेगा, अभी आयेगा' । वह बेचारा दस मिनट, बीस मिनट, एक घंटा, दिन-भर राह देखता रहा। फिर भी मायादित्य के न आने पर उसके मन में कई संकल्प - विकल्प उठने लगे कि 'क्या हुआ होगा? मित्र कहाँ गया? क्या कोई उसे उठाकर ले गया? क्या उसके साथ कोई दुर्घटना घटीं ? चलो, अब इन्तजार में बैठने के बजाय तलाश करूँ।'
स्थाणु मित्र की तलाश में निकल पड़ा। शहर में मन्दिर, मठ, चौक, चौपाल आदि स्थानों में ढूंढता है, परन्तु कुछ पता न लगा। मित्र के प्रति स्नेह होने से उसे रोना आ गया कि 'अरे अरे दोस्त ! निष्कपट प्रेमवाले मित्र ! तू कहाँ गया ? तुझे क्या हुआ? तू सौ बरस जीना । मुझे तेरे दर्शन दे। परदेश में तेरा क्या हुआ होगा?'
स्थाणु का दिल सरल सज्जन का दिल है । मित्र की आपत्ति की कल्पना से वह दुःखी हो रहा है। इसे पूछता, उसे पूछता, परन्तु कोई पता नहीं लगता। अब वह सोचता है कि
'इस तरह कब तक बैठे रहुंगा? सिर्फ खेद करके रोते बैठने का काम तो स्त्रियों का है। मर्द तो उपाय करते हैं । शास्त्रों में भी कहा गया है...'
(मर्द कौन? पियविरहे अप्पियदंसणे य, अत्थक्खए विवत्तीए ।
जे ण विसण्णा ते च्चिय, पुरिसा इयरा पुणो महिला ॥
- अर्थात प्रिय के वियोग में, (२) अप्रिय के योग में, (३) पैसे गंवाने में, व (४) किसी आपत्ति में जो खेद करके बैठे न रहे, (परन्तु सत् उपाय करें) वे मर्द हैं, बाकी तो स्त्री ही हैं।
(१) प्रिय के वियोग में धर्म की ५ समझ :
क्या कहा? मर्द को प्रिय के वियोग में रोते नहीं बैठना चाहिये। तो क्या करना चाहिये ? सद् उपाय करना चाहिये । कैसा उपाय ? ऐसा उपाय कि जिससे प्रिय के वियोग का दुःख हल्का हो, नष्ट हो जाय । यदि फिलहाल वियोग टले, ऐसा नहीं लगता और प्रिय की स्मृति में हृदय भर जाय, तो फिर क्या किया जाय? क्या हो सकता है? धर्म की शरण ही लेनी पड़ती है। धर्म के बिना यह दुःख कोई मिटा नहीं सकता । धर्म की शरण लो, तो धर्म ऐसे महापुरुषों के चरित्र हमें बताता है, जिन्होंने अति प्रिय के वियोग होने पर बहत धीरज, बहुत समझ व समता रखी। सगर चक्रवर्ती के ६० हजार प्रिय पत्र एक साथ दैवी कोप के शिकार बने । क्षण भर के लिये आघात पहुंचा, परन्तु बाद में स्वस्थ बन गये, क्योंकि, सगर चक्रवर्तीने धर्म की समझ ली कि (१) 'इस जगत में ऐसा कोई नियम नहीं कि छोटे हों, वे देर से मरते हैं और बड़े हों, वे पहले ही मरते हैं ?' (२) हम जैसे सोते
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