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लेकिन मूर्ख जीव इन्हें गुण-दोष के साथ जोडता है। उदाहरण के तौर पर, झूठ बोले तो पैसे मिले, सच बोलते तो न मिलते। ऐसा नादान हिसाब लगाते है। लेकिन देखिये कि जगत में झठ बोलने वाले तो बहुत है। पर धन कितनों को मिलता है ? धन तो पुण्य पहुंचता हो तो ही मिलता है। सो भी उतनी ही मात्रा में।
झूठ तो यों ही भार बनानेवाला है। प्रकट भले यह दिखाई दे कि झुठ नहीं बोला और पैसे मिलना रुक गया, उसमें भी नियति का कोई शुभ संकेत समझिए कि 'ऐसा धन न मिलने में ही मेरा भावी शुभ होनेवाला होगा। ऐसे धन में न जाने कोई दूसरी भविष्य की हानियाँ छिपी हों तो?' मन में ऐसा समाधान करना आना चाहिए, जिससे गुणोपार्जन की क्षमता बनी रहे, उसमें दुराग्रह छोड़ देना पड़े।
. मानभट की पत्नी ने पति के अनुनय-विनय को न मानने का दुराग्रह रखा तो अब वह स्वंय पश्चाताप कर ठेठ कुएँ में गिरने तक पहुँची । जब वह गिरी ऐसा पीछे आती हुई सास ने देखा कि वह भी चौंक कर आगे आ कर सोचती है कि "अरे! मेरे बेटे ने और बहू ने कएँ में छलांग लगा दी तो मुझे तो सारी जिन्दगी संताप ही रहा । तो अब मैं ऐसा दुःखमय जीवन कैसे बिताऊंगी? अत: मैं भी इसी में गिर जाऊं।" ऐसा सोचकर मानभट की माँ भी धमाक से कुएँ में गिर पड़ी। - दो दीर्घ विचार :
लम्बा विचार करना है। नहीं, 'जीवन भर इसके दुःख में जलते रहना, इससे तो मरना बेहतर । बस इतना ही अल्प विचार है। लेकिन -
(१) मरने के बाद परभव में कैसा जीवन मिलेगा इसका विचार ही नहीं; उसी तरह,
(२) अब यहाँ यदि इस बहुमूल्य जीवन को सर्वनाश के पथ पर ले नहीं जाता है तो बुद्धिमानी इसमें है कि 'इस जीवन को कायम रख कर - मरने के कष्ट के स्थान पर अच्छेखासे तप-त्याग-आराधना के कष्टों द्वारा भराभरा क्यों न बना लूँ। शरीरको मृत्यु में खोने के बदले त्याग-तप में क्यों न लगा दूँ ? मूर्ख को यह विचार ही नहीं आता।
निराशा के सन्ताप के बदले बुद्धिमत्ता क्या है ? ।
दुनिया में बहुत से लोग किसी निराशा के दुःख में जला करते हैं, लेकिन उन्हें यह समझदारी नहीं सूझती कि 'इस आग से तो अच्छा है कि अब प्रभु की शरण ग्रहण कर लूँ । दुनिया की शरण लेने का सार तो देख लिया । इससे तो अच्छा है कि अब अपना चित्त प्रभु में ही और प्रभु की आज्ञा में ही लगा दूँ जिससे यहाँ भी प्रफुल्लता मिले और परलोक भी सुधर जाय।' दुनिया की ठोकरें खाने के बाद भी यदि अक्ल नहीं आती तो उस बेचारे के फूटे हुए भाग्य में नयी ठोकरें खाना लिखा हुआ रहता है । जब कि प्रभु के सच्ची शरण लेने से तो अशुभ नष्ट होकर, आगामी (भावी) अनर्थ-आपत्ति रुक जाती है, साथ ही वर्तमान में भी चित्त को कितनी शांति मिलती है।
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