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होती है, परन्तु उससे कई गुनी वेदना इसकी होनी चाहिए । प्रभु की दया के अभाव में दुःख लगे बिना प्रभु के साथ दिल कैसे मिले?
संसार की चंचलता :
मानभट पत्नी के आगे गिड़गिड़ा रहा है, पैरों पड़ने तक पहुँच गया, फिर भी जब वह नहीं बोली और मौन लेकर बैठी रही तब अति नम्र बने हुए मानभट का मान उछल पड़ा। संसार है ही ऐसा। 'क्षणं रुष्ट, क्षणं तुष्ट, क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी' घडी भर में रोष तो घड़ी में तोष, घड़ी में गुस्सा तो घड़ी में शान्त । संसार जीव को भावों में चंचल बनाता है, और जीव की यही कमजोरी, विटंबना है और इसीसे संसार असार है, निंदनीय है।
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स्त्री माने क्या ?
मानभट विचार करता है कि 'अरे! मैं इसे इतना इतना मना रहा हूँ, आजीजी करता हूँ, फिर भी यह मानती ही नहीं। सचमुच स्त्रियाँ होती ही ऐसी हैं।
'खणरत विरताओ, खणस्सण खणपसज्जणाओ य । खणगुणगेण्हण मणसा खणदोसग्गहण तल्लिच्छा ॥ विज्जुलइयाणं पिव दुव्विलसियं इमाणं ।' ।
'स्त्रियाँ क्षण में रागमय और क्षण में विरागमय बनती हैं। क्षण में रोष करती हैं और क्षण में प्रसन्न होती हैं, क्षण में गुण मानने के मनवाली और क्षण में दोष-दर्शन में तत्पर होती हैं, इनका आचरण बिजली की तरह दुःखद होता है।'
स्त्री क्षण में रागी और विरागी क्यों ?
अभिमान के नशे में रहनेवाले मानभट ने मान छोड कर समझाया तो भी पत्नी नहीं मानी अतः अब उसे स्त्री के इस स्वरुप का ज्ञान होता है कि स्त्रियाँ पुरुष पर क्षण में राग करती हैं तो क्षण में विराग करती हैं। अभी उनका मनचाहा हो गया तो वल्लभ बहुत अच्छा लगता है। लेकिन संसार एक आइटम से, एक ही मुद्दे से, एक ही बात से कहाँ चलता है ? कोई न कोई बात आया ही करती है। अत: एक मनचाहा होने के बाद दूसरा मुद्दा उपस्थित होने पर उसमें यदि इच्छा विरुद्ध हो गया तो वही वल्लभ अरुचिकर लगता है। ऐसा पुण्य लेकर कौन आयी होती है कि जिसकी मनचाही सभी बातें हो? बडी इन्द्राणी - को भी किसी अवसर पर इच्छा विरुद्ध हो जाता है। अतएव शास्त्रों में सुनते हैं कि इरियावहियं काउस्सग्ग - में अवधिज्ञान पाये हुए उस मुनि ने उसी समय अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर देखा तो पहले देवलोक का इन्द्र इन्द्राणी को मना रहा था। इन्द्राणी को कब मनाना पड़े? उसके मन को अनुकूल न हुआ हो, कुछ इच्छा विरुद्ध हुआ हो तो, और
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