Book Title: Kavivar Bulakhichand Bulakidas Evan Hemraj
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 11
________________ (xii ) वनों की जो परम्परा जैन ग्रंथों में उपलब्ध है उनसे अनेक उलझे सूत्र सुलझाने में बड़ी सहायता मिली । इस वर्णक सम्मुचय को हम तत्कालीन काव्य पाठशालाओं के पाठ्यक्रम का एक अंग ही मान सकते हैं। वर्तनों को इस परिपाटी ने प्राचीन भारतीय संस्कृति को सुसंक्षत करने में बड़ा योगदान दिया है। प्रस्तुत संकलन में आई ऐसी सांस्कृतिक सामग्री पर डा. कासलीवाल ने अपनी विद्वत्तापूर्ण भूमिका में श्रद्धा प्रकाश डाला है। जब से विद्वानों का ध्यान जैन रचनाओं की इस सांस्कृतिक समृद्धि को र गया है, अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों के सांस्कृतिक श्रव्ययत प्रस्तुत किए गए हैं। हरिवंश पुराण, कुवलयमाला, उपमितिभव प्रपंचकथा, प्रद्युम्नचरित जिनदत्तचरित निशीथ चूणि प्रभृति ग्रंथों के ऐसे अध्ययनों ने सांस्कृतिक विषयों में रुचि रखने वाले अध्येताम्रों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश प्रावि के ग्रंथों में प्राप्त प्रभूत सांस्कृतिक संदर्भों के अनुकरण पर प्राप्य भाषा काव्यों में भी ऐसी सामग्री का प्रभाव नहीं है । कविवर बनारसीदास को प्रात्मकथा 'मर्द्ध' कथानक' का ऐसा ही एक अध्ययन हाल ही में किया भी गया है । इस शैली पर, विषयों की और गहराई में उतरते हुए सांस्कृतिक शब्दों का खुलासा किया जाना अपेक्षित है । शब्दों के व्युत्पत्ति जन्य एवं पारंपरिक प्रथों की समीचीनता को उद्घाटित करने के कारण ही 'श्री श्रभिधान राजेन्द्र कोष' जेसे प्रामाणिक ग्रंथ विश्व भर में समाहत हुए हैं । संस्कृति के पक्ष से ही अविछिन रूप से जुड़ा हुआ राज और समाज का प्रशन भी है। ऐतिहासिक उल्लेखों की जो प्रामाणिकता जैन विद्वानों की रचनाओं से सिद्ध हुई है उसकी तुलना में हमारा दूसरा पारम्परिक साहित्य नहीं ठहरता । इसका मुख्य कारण सो पही हो सकता है, कि जैनधर्माचार्य निरन्तर बिहार करते रहने के कारण हरेक स्थान से संबंधित घटनाओं के विश्वस्त तथ्यों से परिचित हो सकते थे । इसी निजी संपर्क से लोक व्यवहार एवं सामाजिक रीति-नीति का भी निकटतम और सहज प्रध्ययन संभव था। निरन्तर जन सम्पर्क में आते रहने से लोक मानस के अन्तराल का वैज्ञानिक अध्ययन एवं मनोवृत्तियों का सम्पर्क विश्लेषण भी उनके लिए सहज बन गया या किसी भी साहित्यकार के लिए देश-देशांतर का इस प्रकार का निरीक्षण अत्यन्त श्रेयस्कर है। पर अनेक कारणों मे ऐसा करना दिले ही लोगों के बश की बात है। जैनाचायों ने चूंकि इसे जीवन का एक प्रति श्रावश्यक अंग बना लिया था. अतः उनके लिए यह साहित्यिक सामर्थ्य का एक कारण भी बन गया है। इस प्रकार के चतुर्दिक में रहने के कारण

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