Book Title: Kavivar Bulakhichand Bulakidas Evan Hemraj
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 9
________________ सम्पादकीय भारतीय भाषामों और उनके साहित्य में एतद्देशीय जैन वाङमय का बड़ा प्रशंसनीय सल्लयोग रहा है। राजस्थानी और हिन्दी के विगत प्रायः एक हजार वर्षों के इतिहास में इस सहयोग के अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा चुके हैं। इससे पूर्व की भी, संस्कृत, अद्धमागधी, प्राकृत प्रपन प्रादि तद्दकालीन भाषामों में रचित, बहुसंख्यक जैन रचनामों के विवरण प्रकाशित हुए हैं। अंन धर्माताओं ने अपने उपदेशों को जनसाधारण के लिए बोधगम्य बनाने के उद्देश्य से लोकभाषा को माध्यम बनाया। यद्यपि वे पाण्डित्य पूर्ण विशिष्ट रचनायें मान्य साहित्यिक भाषामों में करते रहे, पर लोककल्याण की भावना से प्रेरित उनका विपुल साहित्य देशभाषानों में ही रखा गया । यह प्रतिरिक्त हर्ष का विषय है जै साई कार्य को इस परोहर को यत्नपूर्वक सुरक्षित रखा है, जिसके फलस्वरूप संकड़ों वर्ष बीत जाने पर भी वे कृतियां मनुसंषित्सुमों को प्राप्य हो सकी है। श्रद्धालु जैन समाज के श्रावकों ने प्राचार्यों की इस पाती से लाभान्वित होकर स्वयं भी उनके अनुकरण पर बहुसंख्यक रचनायें की हैं। ऐसी अनेक रचनात्रों ने जैन वाङमय में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों में इस प्रवृत्ति का विशेष बाहुल्य रहा है। ब्रजभाषा, बुन्देली भौर पश्चिमी हिन्दी से सटे राजस्थान के पूर्वी और पूर्वी दक्षिणी अंचलों में ऐसी रचनायें अधिक रची गई । इस धर्म प्रधान साहित्यिक जागरण को उस अखणा ज्ञान चेतना से प्रङ्गीभूत रूप में ही देखा जा सकता है जो प्राताब्दियों से उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब और मध्यप्रदेश के विशाल भू भागों को जैन संस्कृति की देन के रूप में मालोकित करती रही है। प्रस्तुत शोधग्नथ में जैन समाज के ऐसे ही तीन सुकरियों की रचनायें संकलित की गई हैं। इस संकलन की विशिष्टता न केवल इन रचनाओं का पज्ञात होना है प्रपितु इनकी भाषागत एवं साहित्यिक वैशिष्ट्य की पांडित्यपूर्ण विशद विवेचना

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