Book Title: Kavivar Bulakhichand Bulakidas Evan Hemraj
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur

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Page 10
________________ (xi) भी है जो मैन वाङमय के लब्धप्रतिष्ठ अधिकारी विद्वान डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा की गई है। हा. कासलीवाल को ऐसे बीसों कवियों को प्रकाश में लाते हुए, इसी प्रकार के कई विद्वत्तापूर्ण संकलन संपादित करने का श्रेय है । ये सभी प्रय विवरसमाज में बचित और समान हुए हैं। श्री महावीर अ'छ पकादमी के छठे 'पुष्प' के रूप में प्रकासित इस संकलन की शृङ्खला को प्रागे बढ़ाने में सतप्त प्रयत्नशील, डा. कासलीवाल की यह नि.स्वार्थ सेवा सभी साहित्य प्रेमियों के द्वारा अभिनंदनीय भोर अनुकरणीय है । विषयवस्तु की दृष्टि से जैन रवनानों को समन भाषा-साहित्य से पृथक करके देखने की जो प्रवृत्ति कही-कहीं दिखाई देती है, उसे भाषा और साहित्य का सामान्य हित चाहने वाले लोग संकुचित मौर एकांगी ही कहेंगे। भाषा के ऐति. हासिक विकास क्रम का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने इन रचनामों की उपादेयता को स्वीकार किया है। जिस काल विशेष की अन्यान्य अजैन रचनायें दुष्णप्य हैं सके लिए तो ये ही रचनायेंहमारा एक मात्र प्राधार बनी हुई है । इन्हीं रचनाओं में प्रसंगवश समकालीन इतर साहित्यकारों के प्रकीर्णक छव भी उदपन मिलते हैं जिनमे साहित्य का इतिहास नवीन तथ्यों से समृद्ध बनता है । प्रबन्ध चिम्सामरिण, पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रबन्ध कोश, पुरानन पद्य प्रबन्ध प्रादि ग्रथों में संकलित उत्तर प्रपभ्र प्र कालीन प्रबंधों में दिए गए ऐसे उदाहरण देश भापामों के उद्भव को समझने में दो सहायक सिद्ध हुए हैं। भाषा के संबंध में दूसरी विशेषता जैन कषियों द्वारा प्रयुक्त वह मनोरम शब्दावली है जो लोक में सप्तत व्यवहार के कारण बड़ी प्राई, स्निग्ध और संस्कार संपन्न हो गई है । पह शब्दावली, परिनिहित साहरिपक शब्द प्रयोगों को रूदिगन कृत्रिमता और शुष्क बाग्जान से प्राकृञ्चित न होकर, लोकमानस में प्रवहमान मानवीय भावनानों की मरसता और अपनत्व से प्रोत प्रोत है। इसमें मस्तिष्क को बोझिल भोर सारना हिणी बुद्धि को कुण्ठित करने के उपक्रम के स्थान पर सीधे हृदय से दो-दो बातें करने का अबाधित और अनायास संपक है । इस दृष्टिकोण से लोकभाषायों की स्थानीय रंगत में रंगे जैन काव्यों का अध्ययन अभीष्ट है। जैन प्रबंध रचनामों में सांस्कृतिक मामग्री की जो विशदता, विपुलता और सर्वांगीरगता मिलती है वह संस्कृतेतर भाषामों के प्रन्यान्य साहित्य में तुलनात्मक रूप से प्रति विरल ही कहीं जाएगी 1 हमारे विस्मृत एवं लुप्तप्रायः ज्ञानकोश के पुनर्निर्माण के लिए जैन साहित्य का महत्व सर्वोपरि माना जाना चाहिए । साहित्यिक

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