Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 12
________________ पुरोवाक् श्री शर्ववर्म कृत कलाप व्याकरण की टीका के रूप में "कातन्त्ररूपमाला" की रचना “वादिपर्वत वज्र” श्रीमद् भावसेन त्रैविद्य के द्वारा हुई। उन्होंने यह रचना “कातन्त्ररूप मालेयं बालबोधाय कथ्यते" इस प्रतिज्ञा वाक्य के अनुसार बाल-व्याकरणानभिज्ञ जनों को शब्द शास्त्र का ज्ञान कराने के लिये की थी। “क-ईर्षत तन्त्रं व्याकरणं" व्यत्पत्ति के अनुसार यह संक्षिप्त एवं सरल व्याकरण है। ग्रन्थ पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के भेद से दो भागों में विभक्त है। पूर्वार्द्ध में 574 सूत्रों के द्वारा सन्धि, नाम-प्रातिपदिक, समास और तद्धित रूपों की सिद्धि की गई है और उत्तरार्द्ध में 809 सूत्रों के द्वारा तिङन्त और कृदन्त रूपों की सिद्धि की गई है। 1483 सूत्रों के इस ग्रन्थ में सरलता से बालकों को संस्कृत व्याकरण का ज्ञान कराया गया है। सुबोध शैली में लिखे जाने के कारण इसका प्रचार न केवल भारतवर्ष में, अपितु विदेशों में भी था। जैन हितैषी अंक 4 वीर निर्वाण संवत् 2441 में प्रकाशित ‘कातन्त्र व्याकरण का विदेशों में प्रचार' शीर्षक लेख से अवगत है कि मध्य एशिया में भूखनन से प्राप्त कुबा नामक राज्य का पता लगा है उसमें जो प्राचीन साहित्य मिला है उससे विदित हुआ है कि उस समय वहाँ बौद्ध धर्म के अनेक मठ थे और उनमें संस्कृत पढ़ाने के लिये कातन्त्र व्याकरण का प्रयोग होता था। इससे समझा जा सकता है कि कातन्त्र व्याकरण की प्रसिद्धि कितनी और कहाँ तक थी। कथा सरित्सागर में निबद्ध एक कथा के आधार पर विदित हुआ है कि महाराजा शालिवाहन (शक) को पढ़ाने के लिये उनके मन्त्री शर्ववर्मा ने कलाप व्याकरण की रचना की थी। कातन्त्ररूपमाला उसी की टीका है। पाणिनीय व्याकरण लोक और वेद दोनों को लिये हुए है तथा प्रत्याहार पद्धति से लिखित होने के कारण दुरूह हो गया है अत: अवैदिक परम्परा बौद्धों, जैनों तथा विदेशीय अन्य लोगों में कातन्त्ररूपमाला की ओर जनता की अभिरुचि होना स्वाभाविक है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी तथा अन्यान्य विश्वविद्यालयों के परीक्षा पाठ्यक्रम में निर्धारित होने से सम्प्रति पाणिनीय व्याकरण का अच्छा प्रचार हो रहा है। पाणिनीय व्याकरण तथा कातन्त्ररूपमाला का तुलनात्मक अध्ययन करने से सहज ही अवगत हो जाता है कि कातन्त्ररूपमाला में सरलता से शब्द सिद्धि की गई है। यही नहीं, लघु सिद्धान्त कौमुदी की अपेक्षा इसमें अन्य अनेक रूपों की सिद्धि अधिक की गई है कारक तथा समास के प्रकरण लघु सिद्धान्त कौमुदी की अपेक्षा अधिक विस्तृत हैं। मनोयोगपूर्वक कातन्त्ररूपमाला का अध्ययन अध्यापन करने वालों के ज्ञान में कोई न्यूनता दृष्टिगोचर नहीं होती। दिवंगत आचार्य श्री 108 वीर सागरजी महाराज के संघ में संस्कत का अध्ययन कातन्त्ररूपमाला के अध्ययन से ही होता था और उस समय उसके माध्यम से जिन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था ऐसे स्व० आचार्य ज्ञानसागरजी 108 मुनि अजित सागरजी आचार्य श्री 108 विद्यासागरजी तथा गणिनी आर्यिकाशिरोमणि श्रीज्ञानमती माताजी, जिनमती, सुपार्श्वमति तथा विशुद्धमति आदि माताओं के संस्कृत विषयक ज्ञान में न्यूनता नहीं दिखाई देती। कुछ दिन पूर्व आचार्य ज्ञानसागरजी के द्वारा जयोदय काव्य के उत्तरार्द्ध का अनुवाद और सम्पादन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तब ऐसा प्रतीत हुआ कि यह काव्य संस्कृत भाषा के अन्यान्य महाकाव्यों से अत्यधिक श्रेष्ठ है। मात्र कातन्त्ररूपमाला के अध्ययन से संस्कृत का इतना विकसित ज्ञान हो सकता है यह विश्वसनीय है।

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