________________ सर्वप्रथम “नीरागाँव" जिला-सोलापुर में आचार्य श्री के दर्शन किये थे। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री की सल्लेखना देखने की उत्कंठा से सन् 1955 में म्हसवड़ (जिला-सोलापुर) में हम दोनों क्षुल्लिकाओं का चातुर्मास हो रहा था। मुझे अध्ययन कराने की रुचि थी, क्षु० विशालमती माताजी की आज्ञा से मैंने वहाँ की बालिकाओं और महिलाओं को एक-दो घण्टे पढ़ाना शुरू किया। उसमें सर्वप्रथम मैंने बालिकाओं को कातन्त्ररूपमाला व्याकरण शुरू किया और धर्म में द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र अर्थ सहित पढ़ाना शुरू किया। उन बालिकाओं में एक बालिका प्रभावती थी। कुछ दिन पश्चात् मुझे एक महिला "सोनुबाई" से विदित हुआ कि “यह कन्या विवाह नहीं कराना चाहती है और त्याग की तरफ भी खास झुकाव नहीं है।" - तब मैंने उसे अधिक प्रेम से पढ़ाना शुरू किया और उस पर वैराग्य के संस्कार भी डालने लगी। इसी चातुर्मास में यह प्रभावती मेरे साथ आ० श्री वीरसागरजी के संघ में आ गई थी जो कि आज आर्यिका जिनमती के नाम से प्रसिद्ध हैं / उन्हें मैंने ये व्याकरण पूरी पढ़ाई थी तथा अनेक शिष्य-शिष्याओं को भी पढ़ाई। अनन्तर मैंने इसी एक व्याकरण के बल पर अनेक साधुओं को व शिष्य-शिष्याओं को श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित “जैनेन्द्र प्रक्रिया” पढ़ाई, पुन: "शब्दार्णव चन्द्रिका” व्याकरण को भी पढ़ाया। इसके बाद “जैनेन्द्र महावृत्ति” व्याकरण जो कि आचार्य श्री पूज्यपाद द्वारा रचित जैनेन्द्र व्याकरण पर ही एक महाभाष्य रूप है उसका भी अध्ययन कराया। सर्व प्रथम भगवान् आदिनाथ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को 'अ आ इ ई' आदि स्वर-व्यंजन सिखाये अतएव इसे आज भी ब्राह्मी लिपि कहते हैं। इसी व्याकरण के अन्त में श्री भावसेनाचार्य ने यही कहा है कि 'प्रभु आदिब्रह्मा ने कुमारी ब्राह्मी सुन्दरी को इसे पढ़ाया था इसलिये इस व्याकरण का नाम 'कौमार" व्याकरण है। आदिपुराण में व्याकरण को 'वाङ्मय' कहा है। यथा___वाङ्मय' को जानने वाले गणधरादि देव व्याकरण शास्त्र, छंद शास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं। . सन् 1967 में मैंने आर्यिका संघ सहित सनावद में चातुर्मास किया उस समय मोतीचन्द ने अध्ययन करना शुरू किया, उन्हें भी मैंने कातन्त्र व्याकरण, गोम्मटसार जीवकाण्ड, परीक्षामुख आदि पढ़ाना शुरू किया। उस समय मोतीचन्द ने कापी में व्याकरण सूत्रों का अर्थ लिखकर अभ्यास करना शुरू कर दिया। लगभग दो वर्ष में इन्होंने यह व्याकरण पूरी कर ली और सोलापुर परीक्षा बोर्ड से परीक्षा भी दे दी। अनन्तर मैं हमेशा रवीन्द्रकुमार, कु० मालती, माधुरी, त्रिशला, मंजू, कला, सुशीला आदि शिष्य-शिष्याओं को भी यही व्याकरण पढ़ाती थी। इन्हें हिन्दी में अर्थरूप से लिखी गयी मोतीचन्द की कापी से बहुत सुविधा मिलती थी। ऐसा देखकर व बहुत जनों के आग्रह को ध्यान में रखकर सन् 1973 में मैंने इस व्याकरण का अनुवाद किया। मोतीचन्द और रवीन्द्र कुमार तभी से इसके छपाने की सोच रहे थे। उपाध्याय मुनि पूज्य अजितसागरजी, आचार्य श्री विमलसागरजी व आचार्य श्री विद्यासागरजी आदि साधु संघों की प्रेरणा भी प्राप्त होती रहती थी। मुझे प्रसन्नता है कि अब इसके छपने का योग आया। इसके पूर्व सन् 1976 में खतौली में मैंने रवीन्द्र कुमार, मालती, माधुरी आदि को पुन: यह व्याकरण पूरी पढ़ाई थी उस समय इन लोगों ने मेरी हस्तलिखित कापी से बहुत कुछ सहयोग लिया था। 1. पद विद्यामधिच्छंदो विचितिं वागलंकृतिम् / त्रयीं समुदितामेतां तद्विदो वाङ्मयं विदुः॥ 111 // आदिपुराण,पर्व 16 (7)