Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 9
________________ सरदारमलजी खण्डाका सर्राफ जयपुर ने वीर प्रेस में उसी समय यह व्याकरण छपा दी। पं० भंवरलालजी न्यायतीर्थ सामने वीरप्रेस में सतत रहते थे अत: सामने के कमरे में मेरी चर्या का अवलोकन कर एवं अध्ययनरत देखकर प्रसन्नता व्यक्त किया करते थे। कभी-कभी निकट आकर क्षु० विशालमती माताजी से कुछ धर्म चर्चायें भी किया करते थे। मुझे उन दिनों आहार में अन्तराय अधिक होती रहती थी जिससे शरीर, मस्तिष्क और आँखें कमजोर रहती थीं। उस पर भी अपनी आवश्यक क्रियाओं को करके मैं स्वाध्याय भी अधिक करती थी। अत: व्याकरण का रटना नहीं होता था फिर भी रात्रि में स्वप्न में अनेक रूप सिद्ध कर लिया करती थी। जो-जो सूत्र एक रूप के सिद्ध करने में काम आते थे, प्राय: सोकर उठकर व्याकरण देखने से वे सूत्र सही ही मिलते थे। कुछ मिलाकर मैं दिन में व्याकरण नहीं रटती थी तो भी रात्रि में स्वप्न में रटना हो जाया करता था इसे कहते हैं संस्कार / प्राय: सभी लोग अनुभव करते हैं कि जो कार्य दिन में किया जाता है या जिस कार्य में अधिक रुचि होती है। स्वप्न में प्राय: ये ही कार्य दिखते रहते हैं जैसे कि कपड़े के व्यापारी स्वप्न में भी कपड़े फाड़ते रहते हैं। विशालमती माताजी कभी-कभी आचार्य श्री के समीप आकर कहा करतीं___“महाराजजी ! वीरमती अम्मा दिन में एक बार व्याकरण पढ़ने के बाद उठाकर देखती भी नहीं हैं और रात्रि में स्वप्न में सारे सत्र याद कर लिया करती हैं" तब निकट में बैठे पण्डित कन्हैयालालजी आदि यही कहते कि इन्होंने पूर्वजन्म में सब कुछ पढ़ा हुआ है इसीलिये बिना याद किये सूत्र कंठाग्र हो जाते हैं। - पण्डित इन्द्रलालजी प्रतिदिन दर्शन करने आते थे तब वे व्याकरण में इतनी योग्यता देखकर कहा . करते थे "ये माताजी 'व्यत्पन्नमति' हैं।" क्षु० विशालमतीजी से भी कहते कि तुम इन्हें व्युत्पन्नमति कहा करो। इनका व्युत्पन्नमति नाम सार्थक है। तब विशालमती माताजी भी अतीव वात्सल्यपूर्वक व्युत्पन्नमति कहने लगतीं थीं। ____ अनन्तर दो महीने में एक दिन शेष रहने पर ही मैंने व्याकरण पूर्ण पढ़ लिया तब विशालमती माताजी मुझे साथ में लेकर आचार्य श्री से आशीर्वाद दिलाने लाईं / आचार्य श्री ने कहा___"बस, इतने मात्र व्याकरण से तुम सभी शास्त्रों का अर्थ समझ लेवोगी अब तुम्हें किसी से कोई भी ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।" इसके बाद दामोदर शास्त्री को यथोचित पुरस्कार दिलाकर आचार्य श्री ने कहा “पण्डितजी ! बस आपका कार्य हो चुका है।” उस समय पण्डितजी बहुत ही दुःखी हुए। वे बोले "गुरुदेव ! मैं इन माताजी को और भी कुछ अध्यापन कराकर सेवा करना चाहता हूँ।" आचार्च श्री ने कहा"पुन: सोचा जायेगा।" फिर मेरी भी इच्छा अब कुछ पूर्ण हो चुकी थी। इसी बीच “चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज सल्लेखना लेने वाले हैं” इतना सुनकर मुझे उनके दर्शनों की तीव्र अभिलाषा हो उठी। मैंने चातुर्मास बाद दक्षिण जाने का विचार बना लिया। अध्यापन मैने आचार्य श्री से आज्ञा प्राप्त कर विशालमती माताजी के साथ दक्षिण जाकर (6)

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