Book Title: Katantra Vyakaran
Author(s): Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 7
________________ मेरे उद्गार गणिनी आर्यिका ज्ञानमती सन् 1953 में टिकैतनगर में प्रथम चातुर्मास होने के बाद आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के संघ का विहार बाराबंकी, लखनऊ होते हुए पुन: महावीरजी अतिशय क्षेत्र की ओर हुआ। भगवान् महावीर के दर्शन कर संघ जयपुर आ गया। क्षु० विशालमतीजी संघ के साथ में थीं। मैं संस्कृत व्याकरण और सिद्धान्त आदि खूब पढ़ना चाहती थी, किन्तु अभी तक मेरी इच्छा पूर्ण नहीं हो रही थी। इससे मेरे परिणामों में कभी-कभी बहुत ही अशांति हो जाती थी यहाँ तक कि कभी-कभी बैठे-बैठे मेरी आँखों में अश्रु आ जाते। "भगवान् ! मुझे पढ़ने का साधन कैसे मिलेगा ? मेरी ज्ञान की बुभुक्षा कैसे शांत होगी ?" मेरी यह स्थिति देखकर विशालमती माताजी आचार्य श्री के पास पहुँचकर सजल नेत्र करके मेरी वेदना सुनातीं और निवेदन करतीं "महाराजजी ! इसकी पढ़ाई का कुछ प्रबन्ध कीजिये।” महाराजजी कहते "अम्मा ! इसकी इतनी छोटी उमर है अत: इसे खूब स्वाध्याय करके स्वयं ही श्लोक रट-रट कर याद करके अपने ज्ञान को बढ़ाना चाहिये, चिन्ता नहीं करना चाहिये।" एक बार मैंने कहा "महाराजजी ! मैं सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ का स्वाध्याय करने बैठी, मूल संस्कृत पंक्तियों से अर्थ समझना चाहती थी किन्तु समझ में नहीं आया। मैं चाहती हूँ कि मुझे आप एक बार इस ग्रन्थ को पढ़ा दीजिये।" महाराजजी ने कहा “आज तुम्हें मैं एक ग्रन्थ को पढ़ा , किन्तु फिर भी हर एक संस्कृत के गन्थों को पढ़कर स्वयं अर्थ करने की क्षमता प्राप्त करने के लिये एक संस्कत व्याकरण का पढना बहुत ही जरूरी है।" मैं तो स्वयं व्याकरण पूर्ण करना चाहती ही थी इस उत्तर से कुछ शांति मिली। पुन: विशालमती माताजी के अत्यधिक अनुनय-विनय से महाराजजी ने स्थानीय पण्डितप्रवर इन्द्रलालजी शास्त्री से कहा “पण्डितजी ! मेरी शिष्या वीरमती को आप संस्कृत व्याकरण पढ़ा दें।". पण्डितजी ने महाराजजी की आज्ञा को शिरोधार्य कर मेरा अध्ययन शुरू किया। पूज्या क्षुल्लिका विशालमती माताजी मेरे साथ व्याकरण पढ़ने बैठ गईं। पण्डितजी ने दो-तीन सूत्र कराये और खूब समझाया। उतनी ही देर में मुझे वे सूत्र, उनकी वृत्ति और अर्थ याद हो गये। पुन: पण्डितजी ने कहा “माताजी ! इन सूत्रों को मैं कल कंठाग्र सुनूँगा।" तब मैंने कहा“पण्डितजी ! आप अभी ही सुन लो और मुझे आगे के आठ-दस सूत्र और बता दो।" पण्डितजी ने कहा“यह लोहे के चने हैं हलुआ नहीं है। बस एक-दो सूत्र ही पढ़ो ज्यादा हविस मत करो।" (4)

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