Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 10
________________ किया गया है, जबकि इसमें गत्यादि मार्गणास्थानों के आधार से बन्ध स्वामित्व का विचार किया है । षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ में जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव और संख्या-इन पांच' विषयों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इन पांच विभागों में से आदि के तीन विभागों में अन्य सम्बन्धित विषयों का वर्णन किया गया है । अन्तिम दो विभागों अर्थात् भाव और संख्या का वर्णन अन्य किसी विषय से मिश्रितसम्बद्ध नहीं हैं। दोनों विषय स्वतन्त्र हैं। शतक नामक पंचम कर्मग्रंथ में प्रथम कर्मग्रंथ में वर्णित प्रकृतियों का ध्र बबन्धी, अध्र बबन्धिनी, ध्र वोदय, अध्र बोदय आदि अनेक प्रकार से वर्गीकरण करने के बाद उनका विपाक की अपेक्षा से वर्णन किया है । उसके बाद उक्त प्रकृतियों का प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्ध का स्वरूप और उनके स्वामी का वर्णन किया गया है। अन्त में उपशमणि और क्षपकनेणि का विशेष रूप में कथन किया है। आधार और वर्णन का क्रम श्रीमद् देवेन्द्रसूरि के पांच कर्मग्रन्थों की रचना के पहले आचार्य शिवशर्म, चन्द्रषि महत्तर आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा अलगअलग समय में कर्म-विषयक छह प्रकरणों की रचना की जा चुकी थी और उक्त छह प्रकरणों में से पांच के आधार से श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने अपने पांच कर्मग्रन्थों की रचना की है। इसीलिए ये कर्मग्रन्थ 'नवीन कर्मग्रन्थ' के नाम से जाने जाते हैं। प्राचीन कर्मग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में जिन विषयों का वर्णन किया है और वर्णन का जो क्रम रखा है, प्रायः यही विषय और वर्णन का क्रम श्रीमद् देवेन्द्रसूरि ने रखा है । इनकी रचना में मात्र प्राचीन

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