Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

Previous | Next

Page 15
________________ करना, खिल्लयां उड़ाना, आदि प्रवृत्ति दर्शनमोहनीय कर्म बंधाती है । अहिंसा-संयमतप प्रधान धर्म के विषय में भ्रांतियाँ करना, धर्म न मानना, किसी की धर्म श्रद्धा को डिगाना, धर्म के फल के विषय में सन्देह करना, एवं देवताओं के विषय में भी अश्रद्धा जन्य प्रलाप करने से दर्शनमोहनीय कर्म उपाजित करना, यह महा पाप हैकर्म है। जलपूजा जुगते करीए, मोहनी बंधठाण हरीए; विनतडी प्रभु न करिए रे, चेतन चतुर थद्र चुक्यो । निज गुण मोहवशे मूक्यो ॥१॥ जीव हच्या बस मल भेटी, देइ फांसों मोगर कुटी; मुख दाबी वाधर वेंटी रे ॥२॥ क्लेश शम्या उदिरणीयो, अरिहा अवगुण मुख भगीआ; बहु प्रतिपालक ने हणीया ॥३॥ . धर्मो धर्म थी चूकबीआ, सूरि पाठक अवगुण लवीआ; श्रुतदायक गुरू हेलवीआ ॥४॥ निमित्त वशीकरणे भरीओ, तपसी नाम वृथा धरीओ: पंडितविनय नवि करीओ ।।५।। पूज्य वीरविजयजी महाराज उपरोक्त पूजा की ढाल में बताते हैं कि सरोवरों में जाल डालकर कई त्रस जीवों को फंसाना, उन्हें मारना, विकलेन्द्रिय तथा प्रसादि जीवों को फांसी लगाकर मारना, मुंह दबाकर मारना, कोड़े, हन्टर आदि से मारना, इस तरह मारने की प्रवृत्ति से जीव मोहनीय कर्म बांधता है। अरिहंतादि पंचपरमेष्ठियों के विरुद्ध बोलना, उनका अनादर करना, उनमें अश्रद्धा रखना, तथा धर्मीजनों को धर्म से च्युत करना, धर्मश्रद्धा पर कुठाराघात करना, ज्ञान-शानी की अवहेलना करना, गुरु का अपमान-अनादर करना, अनेक प्रकार के सच्चे-झूठे कर्म, असत्य सेवन करना, निमित्त वशीकरण करना, न होते हुए भी दिखावा करना, भविनय-अनादर करना आदि अनेक पाप प्रवृत्तियां दर्शनमोहनीय कर्म बंधाती हैं । इस तरह जीव संसार में अनेक प्रकार की पाप प्रवृत्तियों करके दर्शनमोहनीय कर्म से भारी होता है । ऐसे अनेक बंध-हेतु श्राश्रव मार्ग बताए गए हैं । कर्म की गति न्यारी १३

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132