Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 43
________________ ६. लोकोत्तर पवगत मिथ्यात्वसर्व श्रेष्ठ कर्मनिर्जराकारक, मोक्ष प्राप्ति के सहायक, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी, पोष-दशमी, आयंबिल ओली, पर्युषण महानपर्व एवं संवत्सरी महापर्व आदि पर्वो की आराधना कर्मक्षय के लिए करनी चाहिए। पवों में विशेष रूप से तप-त्याग, व्रत-पच्चक्खाण ज्ञान-दर्शन-चारित्र तपादि से आराधना करनी चाहिए और कर्मक्षय एवं आत्मशुद्धि का ही लक्ष्य रखना चाहिए । यही सम्यग् साधना है । परन्तु ठीक इससे विपरीत हेतु से पर्व को त्योहार के रूप में मनाना, तप-त्याग के बजाय खा-पीकर मनाना, व्रतपच्चक्खाण के बजाय लोकरंजन या मनोरंजन पूर्वक मनाना, या सन्तान प्राप्ति, शादी, देह सौंदर्य, रूप-स्वरूप आदि अच्छा मिलने की इच्छा से मनाना, स्वर्ग या सुख भोगों की प्राप्ति के लिए मनाना या मानना या मानअभिमान की पुष्टि, पद प्रतिष्ठा, यशकीति की प्राप्ति आदि सांसारिक इच्छाओं एवं आशाओं की पूर्ति के हेतु से महापर्वो का मानना या मनाना यह लोकोत्तर पर्वगत मिथ्यात्व है। यह भी सर्वथा त्याज्य है । उपरोक्त तीनों लोकोत्तर देव-गुरु एवं धर्म पर्वगत मिथ्यात्व धर्मी आत्माओं को भी लग सकते हैं, यदि वे ऐसी अपेक्षा, आकांक्षा एवं हेतु से करते हों । अतः सी देव-गुरु-धर्म की ऊँची श्रेष्ठ लोकोत्तर कक्षा है उनकी उतनी ही श्रेष्ठ ऊँची कक्षा की रीत-विधि एवं कर्मक्षय-आत्मशुद्धि की शुद्ध भावना एवं अच्छे हेतु-लक्ष्य आराधना-उपासना करनी चाहिए । यही सम्यग् मार्ग हैं। __"मिथ्यात्वी जीव "विपरीतः भावः मिथ्खाभावः-- मिथ्यात्व ।" मिथ्या अर्थात् विपरीतवृत्ति या बुद्धि । मिथ्यात्व अर्थात् विपरीतवृत्ति का भाव । मिथ्या शब्द से भाववाचक अर्थ में मिथ्यात्व शब्द बनाया है । तत्त्व एवं सत्य सिद्धान्त की किसी भी बात को विपरीत ही मानना यह मिथ्यात्व कहलाता है। हमेशा ही मिथ्यावृत्ति एवं मिथ्याबुद्धि के कारण मिथ्यात्वी जीव की दृष्टि भी मिथ्या-विपरीत बन जाती है । अत: उसे मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। इसकी गंगा हमेशा उल्टी ही चलती है, अर्थात् देखने, जानने, मानने, समझने, आचरण करने आदि क्षेत्र में मिथ्यात्वी जीव हमेशजवितता ही रखता है। तत्त्व एवं मत्य सिद्धांत

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