Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 108
________________ मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनोय तीनों प्रकार के दर्शन मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण रूप से क्षय और साथ ही अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ चारों कषाय । इस तरह कुल सातों कर्म प्रकृतियों के दर्शन सप्तक का सम्पूर्ण रूप से सर्वथा क्षय हो जाने पर प्राप्त होता हुआ, स्वाभाविक तत्वरुचि रूप सम्यक्त्व आत्म परिणाम विशेष को क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । चूंकि यह सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है, इसलिए इसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपाती हैं । अर्थात् उत्पन्न होने के बाद कभी भी नष्ट न होता हुआ अनन्तकाल तक रहता है। अतः इसे आदि अनन्त भी कहते हैं। क्षायिक भाव से उत्पन्न होने वाला यह सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। २. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व-- मिच्छत्त जमुइन्न, तं खीणं अणुइययं च उवसंतं । मीसीभाव परिणयं, वेइज्जतं खओवसमं ॥ क्षय + उपशम = क्षयोपशम । क्षयोपशमत्व भाव क्षायोपशमिक अर्थात् उदय में आये हुए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के दलिकों का सर्वथा मूल सत्ता में से क्षय करना और उदय में नहीं आये हुए मिथ्यात्व मोहनीय कर्म दलिकों का दबा देने रूप अपशमन कर रखना । ऐसे क्षय और उपशम भाव से, क्षय के साथ उपशम रूप क्षयोपशम भाव से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उसे क्षयोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। ३. औपशमिक सम्यक्त्व -- मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन कर्म प्रकृति की अनुदय अवस्था अर्थात् उपशम होने से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। पूर्व में जिनका काफी विवेचन किया गया है ऐसे यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण तथा अन्तःकरण आदि करणों के द्वारा अनादि मिथ्या दृष्टि जीव को अपूर्वकरण से निबिड़ राग-द्वेष की ग्रन्थि का भेदन करने पर अनिवृत्ति करण के अन्त में जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। इसका काल अन्तमुहूर्त परिमाण होता है । चारों ही गति में १०६ कर्म की गति न्यारी

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