Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 106
________________ २. (क) द्रव्य सम्यक्त्व - जिनेश्वर कथित तत्वों में जीव की सामान्य रुचि को द्रव्य सम्यक्त्व कहते है, अर्थात् सर्वतोपदिष्ट जीवादि तत्वों में परमार्थ जाने बिना ही वे हो सत्य है "ऐसी श्रद्धा" रखने वाले जीवों के सम्यक्त्व को द्रव्य सम्यक्त्व कहते हैं । भाव सम्यक्त्व --- उपरोक्त सामान्य श्रद्धा रूप जो द्रव्य सम्यक्त्व है उसी में विशेष बुद्धि से जानना अर्थात् सर्वज्ञोपदिष्ट जीव-अजीव, मोक्षादि तत्वों को जानने के उपाय रूप, नय, निक्षेप, स्यादवाद, प्रमाण आदि शैली पूर्वक सभी तत्वभूत पदार्थों को विशेष ज्ञान से परमार्थ जानने वाले की श्रद्धारूप सम्यक्त्व को भाव सम्यक्त्व कहते हैं । संक्षेप में सामान्य रुचि यह द्रव्य सम्यक्त्व है । यहां पर द्रव्य कारण है और भाव कार्य है । इसलिये भाव सम्यक्त्व के कारण रूप द्रव्य सम्यक्त्व कहा गया है और इसका विशेष रूप से विस्तार रुचि भाव सम्यक्त्व है । २. ( उ ) पौद्गलिक सम्यक्त्व - मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के पुद्गल परमाणु के उपशम या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व को पौद्गलिक सम्यक्त्व कहा गया है । इसमें इन पुद्गलों का उपशम क्षयोपशम प्रधान रूप से होता है । ऐसे क्षायोपशमिक, वेदक, सास्वादन, मिश्र प्रकार के सम्यक्त्व पौद्गलिक सम्यक्त्व में गिने जाते हैं, जबकि क्षायिक और पशमिक सम्यक्त्व ये दोनों आत्मा के घर के होने से अपौद्गलिक विभाग गिने जाते हैं । अत: इन्हें "अपौद्गलिक सम्यक्त्व" कहते हैं । त्रिधा सम्यक्त्व - १. कारक सम्यक्त्व सर्वज्ञ भगवान ने जैसा "अनुष्ठान-मार्ग” या चारित्र क्रिया रूप जो मार्ग प्रतिपादित किया है उस मार्ग पर चलने वाले शुद्ध क्रियाशील जीव के श्रद्धाभाव की कारक सम्यक्त्व करते हैं, अर्थात् सूत्रानुसारिणी शुद्ध क्रिया कारक सम्यक्त्व के रूप में है । ऐसी क्रिया से स्व आत्मा को और देखने वाली पर आत्मा को भी सम्यक्त्व प्राप्त होता है । अतः यथार्थं तत्व श्रद्धान पूर्वक आगमोक्त शैली अनुसार तप-जप- व्रतादि क्रिया करने वाले विशुद्ध चारित्रवान् इस कारक सम्यक्त्व का अधिकारी है । १०४ कर्म की गति न्यारी

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