Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 111
________________ व्यवहार रूप से नहीं परतु यथार्थ रूप से सत्वस्तु को ही वस्तु रूप मानने का जो शुभ भाव व इससे जीवादि तत्व के प्रति आत्मा का यथार्थं तत्व श्रद्धा रूप रुचि को निसर्ग रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । (२) उपदेश रुचि - गुरु, सर्वज्ञ केवली के उपदेश द्वारा जीवादि तत्वों में सत् भूतार्थ रूप, यथार्थपने की रुचि (बुद्धि) को उपदेश रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । अर्थात् उपदेश श्रवण से होने वाले बोध की रुचि को उपदेश रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । (३) श्राज्ञा रुचि - विवक्षित अर्थ बोध के बिना भी जिनेश्वर भगवान की आज्ञा को ही सत्य मानकर कदाग्रह के बिना तत्वों में अभिरुचि रखना, आज्ञारुचि कहलाती है । वीतरागी आप्त पुरुष की आज्ञा मात्र से अनुष्ठान करने की रुचि या आचार्य, उपाध्याय, साधु भगवंत, गुरु की आज्ञा से अनुष्ठान आचरने में जो रुचि उत्पन्न होती है उसे आज्ञा रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । जैसी माषतुष मुनि में थी । (४) सूत्र रुचि - आचारांग सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि अंग- उपांग-सूत्र, आदि आगम ग्रन्थों का पुनः पुनः अध्ययन, अध्यापन, पुनरावर्तन करने से उत्पन्न ज्ञान के द्वारा जीवादि तत्वों में यथार्थपने की विशेष श्रद्धा जो उत्पन्न हो, उसे सूत्र रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । जैसी कि गोविन्दाचार्य को थी । (५) बीज रुचि - जीवादि किसी एक पदार्थ की श्रद्धा से उसके अनुसंधान रूप अनेक पदों में तथा उसके अर्थ में उत्तरोत्तर विस्तार होता जाय, उसे बीज रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । जैसे पानी में गिरा हुआ तेल बिन्दु विस्तरता हुआ, चारों तरफ फैल जाता है या एक बीज बोने से जैसे अनेक बीजों का निर्माण होता है वैसे ही अनेक तत्वों के बीज रूप या कारण भूत किसी एक तत्व की श्रद्धा होने पर वह विस्तरित होती हुई अनेक तत्वों की श्रद्धा निर्माण कर, वे उसे बीज रुचि सम्यक्त्व कहते हैं । कर्म की गति न्यारी १०९

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