Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 119
________________ है, अतः सम्यग् दृष्टि जीव सत्य को सत्य ही कहेगा और असत्य को असत्य ही कहेगा। सत्य-असत्य की चतुभंगी(9) TRUE | FALSE = FALSE X (2) FALSE - TRUE = FALSEX (3) FALSE + FALSE = FALSE ✓ (6) TRUE-- TRUE = TRUE V TA जो सत्य को असत्य के साथ मिला देता है वह मिथ्यात्वी कहलाता है क्योंकि सत्य-असत्य के साथ मिलकर अन्त में असत्य ही हो जाता है, अत: यह सम्यग् दर्शन के क्षेत्र में नहीं आता है। दूसरा भेद पहले का विपरीत है, परन्तु फर्क इतना ही हैं कि पहला सत्य को असत्य में मिलाता हैं जबकि दूसरा असत्य को सत्य में मिलाता है, जैसे दूध में पानी मिलावे या पानी में दूध मिलावे। इसमें जितना भेद है उतना ही अन्तर उपरोक्त दो भेदों में हैं । असत्य में सत्य मिलाने पर भी अन्त में असत्य ही रहता है । अतः यह भी मिथ्यात्व का भेद हो जाता है, सम्यक्त्व का नहीं। इस तरह मिथ्यात्बी जीव उपरोक्त दो भेदों वाला होता है। वह स्पष्ट सत्य स्वरूप को कभी जान नहीं सकता है। वैसे ही मानना, देखना, बोलना आदि भी विपरीत ही करता है । असत्य को सत्य बनाना या सत्य को असत्य बनाना, ये दोनों प्रक्रियाएँ विपरीतकरण मिथ्याभाव की है। तीसरे नम्बर का भेद, जिसमें असत्य को असत्य ही कहना यह सम्यग्-दृष्टि का कार्य है । असत्य को असत्य कहने के फलस्वरूप असत्य की नहीं लेकिन सत्य की ही उत्पत्ति होती है । अन्ततः सत्य ही प्रकट होता है । इसमें मिथ्या बुद्धि नहीं होती है, परन्तु सम्यग् दृष्टि की हिम्मत होती है, उसका साहस होता हैं जिससे वह असत्य ही कहने, मानने, जानने आदि के लिए कटिबद्ध होता है। चौथा भेद शुद्ध सम्यक्त्व का है । इसमें सत्य को सम्पूर्ण सत्य के रूप में ही स्वीकारने की तैयारी होती है। वह सत्य को कभी भी विकृत नहीं करता है। कर्म की गति न्यारी ११७

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