Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07 Author(s): Arunvijay Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand SabhaPage 55
________________ अब यहां प्रश्न उठता है कि हम स्वयं भवी है या अभवी जीव है ? इसकी परीक्षा कैसे करें ? हमें स्वानुभुति कैसे हो कि हम भवी हैं या अभवी ? इसका उत्तर स्पष्ट ही है कि जिस कारण से भव्य-अभव्य के भेद पड़े हैं, उसी कारण या लक्षण को हम अपने में देखने की कोशिश करें । अर्थात् आत्मनिरीक्षण करते हुए हम स्व आत्मा को पूछे कि तुझे मोक्ष के विषय में श्रद्धा है या नहीं ? हे जीव ! तू मोक्षतत्त्व को मानने या स्वीकार करने के लिए तैयार है या नहीं ? यदि इनके उत्तर में आत्मा मोक्षतत्त्व के विषय में स्वीकृति प्रदान करें तो निश्चित ही समझना चाहिए कि मैं भव्य जीव हैं । मानों भले ही एक क्षण के लिए भवी जीव मोक्ष-श्रद्धा के लिए तैयार न भी हो, परन्तु मोक्ष के अस्तित्व को स्वीकारने में नहीं हिचकिचाएगा। यदि भवी होते हुए भी सम्यक्त्वी होगा तो (सम्यग्दर्शन प्राप्त किया हुआ) वह मोक्ष, मोक्षमार्ग, मोक्षप्राप्ति के उपाय एवं आत्मा या मोक्षादि सभी, तत्त्व अवश्य स्वीकार करेगा, अन्यथा नहीं, क्योंकि भवीजीव में भी मिथ्यात्वी-सम्यक्त्वी आदि के भेद पड़ते हैं। जीव अभव्य जातिभव्य 'सम्यक्त्वी मिथ्यात्व निश्चितमिथ्यात्वी निश्चितमिथ्यात्वी भव्य-अभव्य जीव में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व उपरोक्त तालिका के अनुसार तर्क-युक्ति पूर्वक इस तरह विचार कर सकते इ-जो अभव्य होता है वह मिथ्यात्वी होता है या जो मिथ्यात्वी होता है वह अभव्य होता है । इस प्रकार के तर्क युक्ति पूर्ण वाक्य सत्य की सूक्ष्मता को स्पष्ट करते हैं । धएं और अग्नि के तर्क की तरह यहाँ भी तर्क का स्वरूप ऐसा ही है । अतः उत्तर स्पष्ट ही है कि जो अभवी होता है वह निश्चित मिथ्यात्वी ही होता है, क्योंकि अभवी जीव अनन्तकाल में भी कदापि, कभी भी सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) या मोक्षादि तत्त्व विषयक-श्रद्धा को प्राप्त नहीं करता है। अतः अभव्य जीव अनन्त काल तक एवं तीनों काल में सदा निश्चित मिथ्यात्वी ही रहता है, लेकिन सभी मिथ्यात्वी जीव अभव्य नहीं होते हैं, क्योंकि भव्यजीव भी मिथ्यात्वी होता है । ठीक कर्म की गति न्यारीPage Navigation
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