Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07 Author(s): Arunvijay Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand SabhaPage 84
________________ प्राप्त होने के कारण अवर्णनीय होता है । इसी बात को योगबिन्दु में एक अल दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सद्व्याध्यभिभवे यद्वद् व्याधितस्य महोषधात् ।। - ग्रन्थिभेद किए हुए को, सम्यक्त्व प्राप्त होते ही, प्रशस्त भाववंत महात्मा को, तात्विक आनन्द-प्रमोद प्राप्त होता है । उदाहरण के लिए समझ लीजिए कि महाकुष्ट रोग की व्याधि से तप्त व्याकुल हुए, रोगी को शीतोपचार आदि, किसी औषधि विशेष से अचानक चमत्का की तरह रोग शान्त होते ही, रोगी को जैसा आनन्द होता है, वैसा ही अनारि संसार के मिथ्यात्व रोग के तीनों करण रूप महौषधि से मिथ्यात्व की निवृत्ति पूर्वष सम्यक्त्व प्राप्त होते ही जीव को पारमार्थिक परम आनन्द होता है । आत्मा के अपूर्व वीर्योल्लास के प्रताप से ग्रन्थि भेद होकर, मिथ्यात्व तिमि दूर होते ही, सम्यक्त्व रूप सूर्योदय से प्रकाश फैल जाता है । वह आनन्द अनुपम हं होता है । उपरोक्त दृष्टान्त भी उपमा देने में स्थूल-कक्षा के होने से छोटे पड़ते हैं अतः हरिभद्रसूरी हमें एक बहुत अच्छा दृष्टान्त देते हैं । ८२ जात्यन्धस्य यथा पुंस-श्चक्षुलभ शुभोदये । सदर्शनं तथैवाऽस्य ग्रन्थिभेदेऽपदे जगुः ॥ जन्म से ही अन्ध, "ऐसे जन्मान्ध पुरुष को जिसने जीवन में कभी रूप, रंग, प्रकाश आदि की दुनियां देखी ही न हो, और योगानुयोग, अचानक किर दैवी चमत्कार वश आँखें खुल जाने पर सब कुछ दिखाई देते समय जो आनन्द अनुभूति होती है, वह अपूर्व, अनुपम होती है । ठीक इसी तरह अनन्त पुद्ग परावर्तकाल में, अनन्त जन्म तक, अनादि मिथ्यात्व के कारण, जिसके सम्यग् दर्श रूप नयनयुगल नष्ट हो चुके थे, जो वर्षों से सत्य तत्व को देख ही नहीं सका थ ऐसे भवाभिनन्दी जीव को योगानुयोग तथा भव्यत्व परिपक्व होने पर, अपूर्वकरणा तीनों करण की सहायता से, ग्रन्थि भेद होने पर, सम्यग् दृष्टि रूपी जो नेत्रोन्मिल कर्म की गति न्याPage Navigation
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