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जीवाजीवाश्रव बंधसंवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्व ॥१-४॥ जीव, अजीव, आश्रव, बंध. संवर, निर्जरा और मोक्ष आदि तत्व हैं । पूर्वधर महापुरुष उमास्वाती महाराज ने इस सूत्र की रचना में पुण्य और पाप को आश्रव तत्व के अन्तर्गत गिनकर तत्त्वों की संख्या सात रखी है, क्योंकि शुभाश्रव को 'पुण्य कहते हैं व अशुभ आश्रब को ही पाप कहते हैं । ' इसलिए पुण्य और पाप को आश्रव के शुभाशुभ भेद गिनकर तत्वों की संख्या सात कही जा सकती है, और जब पुण्य-पाप की व्याख्या स्वतन्त्र तत्व के रूप में करते हैं तब तत्वों की संख्या नौ मानी जाती है, जैसाकि उत्तराध्ययन सूत्र आगम में दर्शाया है
जीवाजीवा य बंधो य, पुर्ण पावाऽसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥
[उत्तरा. -१४]
-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष ये नी तत्व हैं। इसी के जैसी, परन्तु क्रम भेद दर्शाती हुई, गाथा नवतत्व प्रकरण में इस प्रकार है
जीवाजीवा पुण्णं, पावाऽऽसव संवरो य निज्जरणा। बन्धो मुक्खो य तहा, नव तत्ता हुँति नायब्वा ।।
__ [नवतत्व-१] १. जीव, २. अजीव, ३. पुण्य, ४. पाप, ५. आश्रव, ६. संवर, ७. बंध, ८. निर्जरा, ९. मोक्ष आदि नौ तत्व जानने जैसे हैं। समस्त जगत में ये ही मूलभूत नौ तत्व हैं । इनके अतिरिक्त संसार में किसी तत्व का अस्तित्व नहीं है । अतः तत्वों की संख्या न्यूनाधिक न रखते हुए निश्चित ही रखी गई है। इन्हीं तत्वों के साथ जुड़ने वाले भिन्न-भिन्न नामों से हम तत्वों का स्वरूप कुछ सदृश्य नामकरण से भी जान सकते हैं, जैसे- जीव (चेतन), अजीव (जड़), आत्मा-परमात्मा, कर्म, धर्म,पुण्य, पाप, स्वर्ग-नरक, लोक-अलोक, इहलोक-परलोक, पूर्वजन्म, पूनर्जन्म, आश्रव, संवर बंध, क्षय, मोक्ष आदि मूलभूत मुख्य तत्व है। लोक व्यवहार के दृश्यमान पदार्थों को ही पदार्थ मात्र मानकर नहीं चलना है, परन्तु ऐसे तत्वभूत, तात्विक पदार्थों को मानकर चलने से एवं उनकी यथार्थ श्रद्धा रखने को सम्यग्दर्शन कहते हैं । जैसाकि नवतत्वकार कहते हैं कि
कर्म की गति न्यारी