Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07 Author(s): Arunvijay Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand SabhaPage 64
________________ बादर अद्धा सागरोपम 1 सूक्ष्मअद्धा सागरोपम सागरोपम I ६२ बादर उद्धार सागरोपम सूक्ष्म उद्धार सागरोपम बादरक्षेत्र सागरोपम इस तरह बादर और सूक्ष्म के भेद से ६ प्रकार के पल्योपम और ६ प्रकार के सागरोपम होते हैं । प्रत्येक प्रकार के पल्योपम को दश कोडाकोडी से गुणाकार करने पर जो संख्या आती है, उसे अमुक प्रकार का सांगरोपम कहते हैं, अर्थात १० कोडाकोडी बादर उद्धार पत्योपम का एक बादर उद्धार सागरोपम होता है । इस तरह सभी समझने चाहिए । सूक्ष्म अद्धा सागरोपम काल का प्रमाण - नारकी - देव-तियंच मनुष्य गति के जीवों की उत्कृष्ट कर्मबंध स्थिति कायस्थिति और भवस्थिति आदि को दर्शाने में लगता है । इससे देव- नारकी जीवों के आयुष्य को गिना जाता है । मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट बं स्थिति ७० कोडाकोडी सागरोपम की है. वैसे ही आठों ही कर्म की उत्कृष्ट बंध स्थितियों को नापने एवं समझने के लिए इस सागरोपम संज्ञा का आधार लेना पड़ता है । १० कोडाकोडी सागरोपम का एक उत्सर्पिणी काल और १० कोडाकोडी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है । इस तरह उत्सर्पिणी + अवसर्पिणी मिलकर (१० + १० = २०) २० कोडी सागरोपम का एक कालचक्र बनता है । सूक्ष्मक्षेत्र सागरोपम उस्सप्पिणी अनंतर, पुग्गल - परिअट्टओ मुणेअव्वो । asiता-तीअद्धा, अणागयद्धा अनंतगुणा 11 अनन्त उत्सर्पिणी- और अवसर्पिणी का एक पुद्गलपरावर्त काल होता है ऐसी कालचक्र की अनन्त उत्सर्पिणियां और अवसणिणियां बीतने पर १ पुद्गल परावर्तकाल होता है, ऐसा कह सकते हैं । ऐसे पुद्गलपरावर्तकाल भी भूतकाल में अनन्त बीत चुके हैं, तथा भविष्यकाल में और अनन्तगुने होने वाले हैं। इस तरह भूतकाल (अतीत ) भी अनन्त है, और अनागत- भविष्यकाल भी अनन्त है । काल का कहीं अन्त ही नहीं है । काल अनादि-अनन्त है | ऐसे अनन्त कालचक्र या अनन्त उत्सर्पिणियाँ अवसर्पिणियाँ मिलकर "एक पुद्गल परावर्तकाल" बनता है । " पुद्गल परावतं" यह जैन पारिभाषिक शब्द है । कर्म की गति न्यारीPage Navigation
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