Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 31
________________ जा रहे हैं । पीला देखकर यदि सोना खरीद लिया तो नुकसान हमारा ही होगा। इसलिए सोने की भी परीक्षा करके ही खरीदना चाहिए। सोने की परीक्षा भी आसान नहीं है। कष-छेद-भेद और ताप इन चार प्रकार से परीक्षा की जाती है । उसी तरह संसार के व्यवहार में हर वस्तु की परीक्षा की जाती है। अतः अच्छा यह होगा कि हम देव-गुरु-धर्म आदि तत्त्वों की परीक्षा करके ही उन्हें स्वीकार करें। तार्किकशिरोमणि पूज्य हरिभद्रसूरी महाराज कहते हैं कि-"धर्मो धर्माथीमिः सदाज्ञया परिक्षीतः।" धर्माथी-धर्म की इच्छा वाली आत्मा को सदा धर्म की परीक्षा करके ही उसे स्वीकारना चाहिए। शायद आप सोचेंगे कि हमें धर्म की परीक्षा करने का क्या अधिकार है ? हम किस बुद्धि से भगवान की परीक्षा करें ? हमारे पास कहां इतना ज्ञान है कि हम तत्त्वों की परीक्षा कर सकें ? बात सही है । सोचिए ! हमने सोने की परीक्षा कैसे की ? कसौटी, पर कसके ही परीक्षा की कि यह सोना है। वैसे ही धर्मशास्त्रों ने हमें ऐसे कसौटी रूप सिद्धान्त बताए है जिससे हम भगवान और धर्म की भी परीक्षा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए "नमो अरिहन्ताणं" पद दिया है। अरिहंत परमात्मा को नमस्कार किया है । भगवान को 'अरिहंत' शब्द से संबोधित किया है। "अरि" = आंतर शत्रु । काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, आदि आत्मा के आभ्यन्तर शत्रु हैं। 'हंत' अर्थात् हनना = नाश करना। अरिहंत अर्थात् राग-द्वषादि आंतर शत्रुओं के विजेता, ऐसे अरिहंत भगवान को नमस्कार किया गया है। नमुत्थुणं के पाठ में "नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवन्ताणं" ये शब्द पहली संपदा में दिये गये हैं । अर्थ है-"नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्तों को" यहां प्रश्न उठता है कि-जो-जो अरिहंत होते है वे भगवान होते हैं ? या जो भगवान होते हैं वे अरिहन्त होते हैं ? इस तर्क का उत्तर यदि हम ऐसा दें कि-जो-जो भगवान होते हैं वे अरिहन्त होते हैं। तो सोचिए ! यह कहां तक सही लगेगा ? क्योंकि संसार में भगवान कई प्रकार के होते हैं, तथा भगवान शब्द के भी कई अर्थ होते है। भोगलीला करने वाले को भी लोग भगवान कहते हैं । कोई अपने आप ही भगवान बन बैठते हैं। कोई “संभोग से समाधि" ऐसे पापाचार, दुराचार एवं दंभ चलाने वाले भी भगवान कहलाते हैं । कोई चमत्कारों को दिखाकर भी भगवान बनने का स्वांग करते हैं। इस तरह ऐसे कर्मयुक्त रागी-द्वेषी कई भगवान बन बैठते हैं। वे अरिहंत वीतराग कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि अरिहन्त तो राग-द्वेषादि सर्व आभ्यन्तर-कर्मशत्रु रहित होते हैं। इसलिए जो-जो भगवान होते हैं वे अरिहंत हैं, ऐसा मानना, या कहना सही नहीं भी है, तर्क-युक्ति शून्य है । इसलिए कर्म की गति न्यारी

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