Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

Previous | Next

Page 40
________________ तत्त्व के क्षेत्र में देव-गुरु-एवं धर्म की तत्त्वत्रयी बताई गई है। इस तत्त्वत्रयी में धर्म संबंधी सारा तत्त्व-ज्ञान समाया हुआ है । अतः इन तीन के बाहर धर्म की कोई बात नहीं है । धर्म की समस्त बातें इन तीन में समां जाती हैं । यहां स्पष्टीकरण यह करना है कि-देव तत्त्व से वीतराग भगवान को समझाना है, न कि कोई स्वर्गीय देवगति के देव को। यहां 'देव' शब्द देवाधिदेव शब्द का संक्षिप्त रूप है । शास्त्र में लिखा है कि जो देवाणवि देवो, जं देवा पंजलि नमसंति । . तं देवदेवमहियं, सिरसा वंदे महावीरं । -जो देवताओं के भी देव हैं, जिन्हें देवलोक के देवता भी अंजलीबद्ध नमस्कार करते हैं, तथा देवलोक के देवताओं के स्वामी इन्द्रादि देवों से पूजे गये हैं, ऐसे देवाधिदेव श्री महावीर स्वामी भगवान को सिर झुकाकर वंदना करता हूँ । उपरोक्त गाथा में देवाधिदेव किसे कहते हैं, यह व्याख्या स्पष्ट की है । अतः 'देव' शब्द देवाधिदेव का अन्तिम अर्धांश के रूप में लिया गया है । इससे महावीर स्वामी आदि अरिहंत भगवान देव समझना है। इस तरह देव-सर्वज्ञ वीतरागी, भगवान, गुरु-सर्वज्ञ भगवान के बताये हुए मार्ग पर चलने वाले तथा प्रभु के धर्म का उपदेश एवं आचरण करने वाले गुरु कहलाते हैं तथा सर्वज्ञ भगवान ने जो तत्त्व रूप धर्म बताया है उस धर्म की उपासना तत्त्वत्रयी की शुद्ध सम्यग् साधनो कहलाती है । यहां पर लौकिक-लोकोत्तर आदि दृष्टि से देव-गुरु-धर्म की रत्नत्रयी का विचार किया जाना है। जानना-मानना और आचरण करना इन तीनों की दृष्टि से जीवों की सम्यग् एवं मिथ्याधारी दृष्टि रहती है । देव-गुरु-धर्म की तत्त्वत्रयी का स्वरूप अपने रूप में तो यथार्थ-सही ही है, परन्तु उनका स्वरूप जानने वाले हमारे जैसे जीव, जानने के विषय में सही या गलत भी जान सकते है । उसी तरह मानना अर्थात् श्रद्धा रखने के विषय में सही या गलत श्रद्धा भी रख सकते है, उसी तरह आचरण करने के विषय में सही या गलत आचरण भी कर सकते हैं। जो सही आचरण है वह सम्यक्त्व है और जो गलत आचरण है वह मिथ्यात्व है। इस तरह लौकिक एवं लोकोत्तर दृष्टि से देव-गुरु-धर्म की तत्त्वत्रयी की श्रद्धा एवं आचरण करने के क्षेत्र में जो मिथ्या (गलत) पद्धति है, उस मिथ्यात्व के जो ६ भेद होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है। कर्म की गति न्यारी

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132