Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07 Author(s): Arunvijay Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand SabhaPage 38
________________ ऐसे सांशयिक मिथ्यात्वी जीव, सत्य जानते और मानते हुए. या धर्म करते हुये, भी अपने शंकाशील स्वभाव के कारण भगवान में, गुरु में, धर्म में, धर्म के फल में, तथा तत्त्वों में संशय करते रहते हैं। वे सांशयिक मिथ्यात्वी कहलाते हैं । इस तरह शंका-कुशंका करके अपनी श्रद्धा को वह दूषित करता रहता है और मिथ्यात्व का कलंक लगता रहता है। सम्यक्त्व में भी फदाग्रह-दुराग्रह या पूर्वाग्रहवश होकर शंका कुशंकाएं खड़ी करना, यह सांशयिक मिथ्यात्वी का काम है । सर्वज्ञ वीतरागी भगवान पर पूर्ण सचोट श्रद्धा न होने के कारण उनमें, उनके वचन में, तत्त्व में, धर्म में, धर्मफल में, ऐसी शंकाएं उसके दिमाग में उत्पन्न होती रहती हैं। मन में बार-बार थिचार तरंगें उत्पन्न होती ही रहती हैं कि यह सत्य होगा या नहीं ? यह ऐसा होगा या नहीं ? पुण्य-पाप जैसी कोई वस्तु होगी या नहीं ? भगवान हुए थे या नहीं ? स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक होंगे या नहीं ? पुनर्जन्म या पूर्वजन्म होते भी हैं या नहीं ? धर्म करने से कोई फल मिलता होगा या नहीं ? इस तरह सैकड़ों प्रकार की शंकाएं भूत के रूप में उसके सिर पर सवार होती रहती हैं । नीतिकार ठीक ही कहते हैं-"संशयात्मा विनश्यति-श्रद्धावान् लभते फलम् ।" संशयी-शंकाशील आत्मा विनाश लाती है, नष्ट होती है, नाश की दिशा में जाती है, जबकि श्रद्धावान् जीव फल प्राप्त करता है। यहां एक बात का स्पष्टीकरण करना है कि जिज्ञासा-जानने की बुद्धि से यदि शंका प्रकट की जाय, अभ्यास हेतु, वादचर्चा या शंका-समाधान के रूप में यदि जिज्ञासा वृति से, सहजभाव से शंका या प्रश्न किया जाय, यह गलत नहीं हैं, यह मिथ्यात्व नहीं हैं । यह भेद तो पूछने वाले की वृत्ति से ही स्पष्ट हो जाता है। अतः सांशयिक मिथ्यात्ब भी घातक होता है, आत्मा का श्रद्धा से अध: पतन कराता है। . ५. अनाभोगिक मिथ्यात्व एकेन्द्रियादि जीवों को, अज्ञान की प्रधानता के कारण, इस प्रकार का अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है । अनाभोग = अज्ञानता । अज्ञानता के कारण तत्त्वों के प्रति अश्रद्धा या श्रद्धा के अभाव में विपरीत श्रद्धा ही अनाभोगिक मिथ्यात्व कहलाता है। यहां समझ शक्ति का अभाव ही, मुख्य कारण है । यह एकेन्द्रियादि जीवों में तो होता ही है, और किसी विशेष विषय के अज्ञान के कारण, विपरीत ज्ञान या श्रद्धा वाले मनुष्यों में भी होता है । परन्तु ऐसा अनाभोगिक मिथ्यात्वी मनुष्य आभिग्रहिक और अनाभिग्रहित मिथ्यात्वी की तरह, कदाग्रही की तरह पकड़ नहीं रखता है, परन्तु ३६ कर्म की गति न्यारीPage Navigation
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