Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 39
________________ सरल होता है । यदि उसे कोई सही ज्ञान समझा दे तो वह भूल सुधार कर समझने के लिए तैयार होता है, क्योंकि आग्रह-कदाग्रह रहित होता है, और यदि कोई उसे विपरीत ही समझा दें, तो वह विपरीत ही पकड़कर रखेगा, परन्तु सही मिलने पर भूल सुधार भी लेगा। निगोदादि एकेन्द्रिय जीव तथा पंचेन्द्रिय जीवों तक अव्यक्त अवस्था में यह मिथ्यात्व पड़ा रहता है। यह समझपूर्वक नहीं, परन्तु समझ शक्ति का विकास ही नहीं हुआ है उसके कारण है। वस्तुविषयक सही ज्ञान के अभाव में अज्ञानता के कारण यह मिथ्यात्व पड़ा रहता है ।। अश्रद्धा के दो अर्थ है। १. विपरीत श्रद्धा और २. श्रद्धा का अभाव । पहले के तीन मिथ्यात्व, विपरीत श्रद्धा रूप अश्रद्धा वाले हैं । चौथे सांशयिक मिथ्यात्व में श्रद्धा-अश्रद्धा दोनों का मिश्र भाव रहता है क्योंकि श्रद्धा का अभाव है। पांचवें अनाभोगिक मिथ्यात्व में जीव, जो किसी प्रकार का धर्म या दर्शन पाये ही नहीं है, ऐसे एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय आदि तक के जीवों में, श्रद्धा के अभाव रूप मिथ्यात्व है । इस तरह मिथ्यात्व के उपरोक्त प्रमुख पांच भेद बताए गए हैं। शास्त्रकार महर्षियों ने इस मिथ्यात्व को आत्मा का महा शत्रु बताया है। अनेक कर्म बंध की यह मूल जड़ है। अतः मिथ्यात्व दशा में जीव बड़े भारी कर्मों को बांधता है । अत: मिथ्यात्व से बचने के लिए मिथ्यात्व का स्वरूप, भिन्न-भिन्न प्रकारों से, अनेक रीति से, बताया है, जिसमें दस प्रकार की संज्ञाएं, अभिगृहिक आदि मुख्य पांच भेद, लौकिकलोकोत्तर भेद से ६ प्रकार का और बताया है, जिसका विवेचन आगे करते हैं। लौंकिक-लोकोत्तर भेद से ६ प्रकार का मिथ्यात्व लोक लोकोत्तर भेदे षइविध, देव-गुरू वली पर्वजी, शक्ते तिहां लौकिक व्रण आदर, करतां प्रथम निगर्वजी। लोकोत्तर देव माने नियाणे, गुरू ने लक्षणहीना जी, पर्वनिष्ठ इहलोकने काजे, माने गुरूपद लीना जी । मिथ्यात्व के ६ भेद लौकिक लोकोत्तर लौकिक देवर्गत गुरुगत पर्वगत लोकोत्तर - लोकोत्तर देवगत गुरुगत गुरुगत पर्वगत की गति न्यारी

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