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दोनों ही प्रसंग में मिला हुआ मिश्रित भाव रहता है। अतः इसे अर्ध विशुद्ध कक्षा कहते हैं।
मीसा न राग-दोसो जिण-धम्मे अंत-मुहू जहा अन्ने । नालियर-दीव-मणुणो, मिच्छं जिण-धम्म-विवरीअं ।।
[प्र० कर्मग्रन्थ-१६] ..
कर्मग्रन्थकार मिश्रमोहनीय को समझाने के लिए उपरोक्त श्लोक में दृश्टांत देते है । नालीकेर-द्वीप नामक द्वीप में, जहां अन्न उत्पन्न नहीं होता है, सिर्फ नारियल ही होते हैं, ऐसे नालोकेरद्वीप के मनुष्य जिन्होंने कभी अन्न देखा ही न हो, और खाया भी न हो, परन्तु कभी स्थान विशेष या क्षेत्र विशेष में कोई अन्न का पदार्थ खाने के लिए दिया जाय, तब उन्हें उस अन्न के प्रति न कोई विशेष राग है और न कोई विशेष द्वेष है, परन्तु उभय रूप से मिश्रभाव है। वैसे ही मिश्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण वीतराग के सम्यग् धर्म के प्रति जिसे न कोई राग और न ही कोई विशेष द्वेष हो उसे मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं। यह अन्तरमुहूर्त काल तक रहता है।
३. मिथ्यात्व मोहनीय कर्म
मिच्छं जिण धम्म विवरीअं-वीतराग जिनेश्वर के सम्यग्-सत्य धर्म से विपरीत मान्यता को मिथ्यात्व कहते हैं। सर्वज्ञ-जिन प्रणीत धर्म से सर्वथा विपरीत मति-बुद्धि हो तथा शुद्ध धर्म सर्वथा रूचिकर न हो उसे मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। जिस कर्म के कारण आत्मा-परमात्मा-मोक्ष आदि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा ही न हो तथा देव-गुरु, धर्म को माने ही नहीं या ठीक विपरीत बुद्धि रखने वाला हो उसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म कहते हैं। इसके कर्म पुद्गल परमाणु सर्वथा अशुद्ध ही होते हैं।
दृष्टांत द्वारा समझदर्शनमोहनीय की इन तीनों प्रकृतियों को समझाने के लिए भिन्न-भिन्न दृष्टांत दिए गए हैं। १. मदनकोद्रव अन्न का दृष्टांत, २. पानी का दृष्टांत, ३. वस्त्र का दृष्टांत । इन दृष्टांतों में मुख्य हेतु शुद्ध, अर्धशुद्ध एवं अशुद्ध का है । अतः
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कर्म की गति न्यारी