Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 07 Author(s): Arunvijay Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand SabhaPage 21
________________ इसी तरह आत्मा पर लगे हुए कार्मणवर्गणा के पुद्गल परमाणु जो मोहनीय कर्म के दलित हैं, उन्हें आत्मा शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध तीन प्रकार से रखती है । आदि मोहनीय कार्मणवर्गणा के अशुद्ध पुद्गलों को शुद्ध किया ही न हो, वे सर्वथा पशुद्ध ही पड़े हों, तो उन्हें मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के बताए जाते हैं। ___मैले कपड़े को हम जिस तरह धोते हुये शुद्ध-शुद्धतर और शुद्धतम करते आते हैं वैसे ही आत्मा के कर्म परमाणु भी अशुद्ध से अर्धशुद्ध और आगे शुद्धगुद्धतर-शुद्धतम होते जाते हैं । अर्धशुद्ध अवस्था में उन्हे मिश्रमोहनीय कहा जाता है था सम्पूर्ण शुद्ध अवस्था में उन्हें सम्यक्त्वमोहनीय कहा जाता है । १. सम्यक्त्वमोहनीय कर्म यह दर्शनमोहनीय कर्म की प्रकृत्ति है। प्राप्त हुए सम्यक्त्व अर्थात् श्रद्धा में यो दोष लगाए, उसमें शंकाशील-संशयी बनाए तथा भ्रम पैदा करे, वह सम्यक्त्वमोहनीय कर्म है। आत्मा पर से मिथ्यात्व के मलिन अशुद्ध पुद्गल परमाणु निकल गए हों, या आत्मा ने मिथ्यात्व के पुद्गल परमाणुओं को शुद्ध कर लिए हों, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं। शुद्ध किए हुए मिथ्यात्व के पुद्गल परमाणु की स्थिति को सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं । २. मिश्र मोहनीय कर्म मिथ्यात्व के पुद्गल परमाणुओं को आत्मा पूर्ण रूप से धोकर शुद्ध न कर सके तथा अर्धशुद्ध अवस्था रह जाय जिसमें कुछ अंश शुद्ध का और कुछ अशुद्ध का रहे उसे मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं। अर्थात् जिसमें कुछ अंश सम्यक्त्व का भी रहे और कुछ अंश मिथ्यात्व का भी रहे । ऐसे शुद्ध-अशुद्ध अर्थात् सम्यक्त्व और मिथ्यात्व की मिश्रित अवस्था को मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं । सम्यक्त्व + मिथ्यात्व - मिश्रमोहनीय कर्म । मिश्रमोहनीय कर्म में श्रद्धा और . अश्रद्धा तथा सत्य और असत्य दोनों के प्रति मिश्रभाव रहता है । इसके उदय से सुदेव, सुगुरु, सुधर्म तथा जीवादि तत्वों के विषय में ऐसी श्रद्धा महीं हो पाती है कि यही सत्य है और यही असत्य है। ऐसी अश्रद्धा भी नहीं होती है । ऐसे मिणभाव को मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं। इसके कारण जीव को सच्चे और झंठे कर्म की गति न्यारीPage Navigation
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