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१४. प्हाड़-सो आभार मानां म्है दयालू देवता।
तोड़ी आड़ इक्यासी बरसां री राख्यो मान है।। १५. खैर मत भूलीज्यो म्है तो भक्त हां भगवान रा।
थांरी करुणा रो नजारो म्हारो जीवन-प्राण है।। १६. मीठी बोली अमृत घोली देव दै आश्वासना।
खूब हुई है उपासना अब क्यूं मन म्लान है? १७. मालवै में रह्यो है समूचो संघ म्हालतो।
जातां रो यातायात भी उदीयमान है।।
२मालव में मतिमान।
१८. थळी देश रा वासी जी, मालव में मतिमान।
गुरु-सेवा अभ्यासी जी, मालव में मतिमान। मरु-मेवाड़-निवासी जी, मालव में मतिमान। परिसर प्रांत प्रवासी जी, मालव में मतिमान
बड़भागी सौभागी सद्गुरु-उपासना में लीन।। १६. दास गणेश गधइया जी, बिरधू रा बड़भइया जी,
लख इंगित पथ बहिया जी, गुरु-यात्रा-रथ पहिया जी।
तन दुर्बल मन सबल शाह रो मैं दीठो बेजोड़।। २०. पहली पुर में जाता जी, बड़ा हाथ रा दाता जी,
कम खा खूब खिलाता जी, घर-घर सेठ कहाता जी।
भैक्षवशासण की प्रभावना में रहता अग्रेस।। २१. कई एक बर आया जी, कइ बे फेरा खाया जी,
तीजै चौथै धाया जी, नाम न जाय गिणाया जी। मगन भाई अधिकाई दर्शन कीन्हा तेरह बार।।
१. प्रस्तुत उल्लास के नौवें गीत की २७वीं गार्थों में बंयासी वर्षों का उल्लेख हुआ है और
बारहवें गीत की १४वीं गाथा में इक्यासी वर्षों का। यह विसंगति नहीं, सापेक्ष कथन है। जयाचार्य मालवा पधारे, उस समय वि.सं. १६१० की साल चल रही थी। उनका रतलाम चातुर्मास वि.सं. १६११ का था। प्रवासकाल के आदिबिन्दु और अन्तिम बिन्दु
को गणना का आधार बनाने से एक वर्ष का अन्तर हो जाता है। . २. लय : पिउ पदमण नै पूछे जी
उ.५, ढा.१२ / १५७