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की दिशा में भी उनकी अभिरुचि थी। किंतु पर्याप्त सामग्री उपलब्ध न होने से उस दिशा में गति नहीं हो सकी।
__ आगमों के आधुनिकतम संपादन का काम आचार्यश्री तुलसी के युग में शुरू हुआ, पर उसका बीजवपन कालूगणी द्वारा किया हुआ है। बीज को पल्लवित, पुष्पित और फलित करना बहुत बड़ी उपलब्धि है, किंतु इस उपलब्धि का स्रोत है बीजवपन करने की कला और क्षमता। कालूगणी के बीजवपन को आचार्यश्री तुलसी प्रशस्त मार्ग की उपलब्धि के रूप में स्वीकार करते हैं।
८३. आचार्यश्री कालूगणी समय-समय पर सन्तों का परीक्षण करते रहते थे। वे परीक्षण भी इस प्रकार करते कि सन्त हक्के-बक्के रह जाते। एक दिन प्रायः सभी सन्तों को बुलाकर आपने कहा-'असवारी' की राग सुनाओ।' इसकी पूरी पंक्ति है-'राणाजी! थांरी देखण द्यो असवारी'।
मुनि कुन्दनमलजी, चौथमलजी, सोहनलालजी (चूरू) आदि कई सन्त इस रागिनी से परिचित थे। उन्होंने राग सुनाई, पर कालूगणी की दृष्टि में वे उत्तीर्ण नहीं हुए। कई मुनियों की रागिनी सुन लेने के बाद उन्होंने मुनि तुलसी से कहा-'तुम सुनाओ।' मुनि तुलसी ने कुछ ही दिन पूर्व वह रागिनी कालूगणी से धारी थी। ग्रहणशीलता होने के कारण उन्होंने उस रागिनी में रचित एक पद्य उसी रूप में सुना दिया।
कालूगणी ने फरमाया-'यह ठीक गाता है। इस प्रकार गाना चाहिए।' कालूगणी की इस टिप्पणी पर संतों ने परस्पर कहा-'इन्हें कालूगणी स्वयं सिखाने वाले हैं। इनकी तुलना में हम कैसे आ सकते हैं। ऐसे प्रसंगों पर संत यह अनुभव करने लगे थे कि मुनि तुलसी पर कालूगणी की विशेष कृपा है।
८४. एक दिन पश्चिम रात्रि में गुरु-वंदना के समय सब मुनि आचार्यश्री कालूगणी के उपपात में बैठे थे। व्याकरण का प्रसंग चल रहा था। कालूगणी ने कहा-'तुम लोग व्याकरण पढ़ते हो, पर कढ़ते कौन-कौन हो? मनन बिना व्याकरण व्याधिकरण बन जाता है।' परीक्षण की दृष्टि से आपने पूछा-'कुमारीमिच्छति, कुमारी इव आचरति इति 'कुमारी ना'-यहां कौन-सी विभक्ति है?' ।
बात कठिन तो नहीं थी, पर आचार्यश्री द्वारा पूछे जाने पर वह कठिन हो गई। संत विभक्ति खोजने में उलझ गए। 'कुमारी ना' यह तृतीया विभक्ति जैसा प्रतीत होता है, पर होनी नहीं चाहिए। क्योंकि कुमारी शब्द का तृतीय विभक्त्यन्त रूप कुमार्या बनता है। यह सोच संत मौन रहे। कालूगणी ने मुनि तुलसी का नाम लेकर कहा-'तुलसी! तुम बताओ। मुनि तुलसी ने तत्काल उत्तर दिया-'गुरुदेव!
३१८ / कालूयशोविलास-२