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कहते हैं आपने मूर्खता की। अब सब संत कहेंगे-आपने महामूर्खता की।'
कालूगणी द्वारा उठाए गए इस कठोर कदम के पीछे मुनि चांदमलजी की अवहेलना का उद्देश्य.नहीं था। कालूगणी का एक ही चिंतन था कि संघ में कोई गलत काम न हो। इसलिए वे हर बात पर सूक्ष्मता से ध्यान देते थे तथा संघ के वरिष्ठ और दीक्षाज्येष्ठ मुनियों की भूल पर भी कड़ा एक्शन लेकर सबको सजग कर देते थे।
१०२. बीदासर के पंचायती नोहरे में आचार्यश्री कालूगणी प्रवचन कर रहे थे। साध्वीप्रमुखाश्री कानकुमारीजी कारणवश पीछे रह गई थीं। वे चाड़वास से विहार कर बीदासर पहुंचीं। जब वे आचार्यश्री के दर्शन करने नोहरे में पहुंची तो प्रवचन-सभा में हलचल मच गई। साध्वीप्रमुखाश्री के स्वागत में लोग खड़े हो गए। हलचल होने से प्रवचन बीच में स्थगित करना पड़ा।
थोड़ी देर में हलचल शांत हो गई तो कालूगणी ने फरमाया-'अब तक हमारे श्रावकों को यह भी ज्ञान नहीं है कि आचार्य के सान्निध्य में किसके साथ क्या व्यवहार होना चाहिए। कोई भी साधु-साध्वी किसी स्थान और पद पर हो, आचार्यों के सामने वह सब गौण है। आचार्यों के व्याख्यान में व्यवधान उपस्थित करना आचार्यों की आशातना है। श्रावकों का कर्तव्य है कि वे आनेवाले साधु-साध्वियों को विनयपूर्वक रास्ता दे दें, पर व्यवहार में अति न करें।
श्रावकों को अपने प्रमाद का अनुभव हुआ। उन्होंने भविष्य में सजग रहने की भावना व्यक्त कर आचार्यश्री से क्षमायाचना की। कालूगणी ने साध्वीप्रमुखाश्री कानकुमारीजी की ओर इंगित कर कहा-'इन्होंने अपनी ओर से भाई-बहनों को स्वागत में उठने से मनाही नहीं की, यह इनकी भूल है।' साध्वीप्रमुखाश्रीजी ने विनयपूर्वक अपनी भूल स्वीकार की और उसके कारण आचार्यश्री को जो परिश्रम करना पड़ा उसके लिए अनुताप व्यक्त किया। यह घटना वि. सं. १९८४-८५ के आसपास की है।
१०३. सरदारशहर में कालूगणी सेठ संपतमलजी दूगड़ की धर्मशाला में प्रवास कर रहे थे। उस समय प्रवचन सुनने के लिए बाह्य उपकरणों की सुविधा नहीं थी, अतः पीछे बैठने वालों को अच्छी प्रकार सुनाई नहीं देता था। आचार्यों के प्रवचन सुनने का लोभ सभी को रहता था; इसलिए आगे बैठने हेतु दौड़ा-दौड़ होती रहती थी।
कालूगणी प्रवचन करने पधारे और नमस्कार मंत्र का पाठ किया। विधि के अनुसार नमस्कार मंत्र के पाठ के समय सब श्रावक-श्राविकाओं को अपने
परिशिष्ट-१ / ३२६