Book Title: Kaluyashovilas Part 02
Author(s): Tulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
Publisher: Aadarsh Sahitya Sangh

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Page 341
________________ को अपना उत्तराधिकारी बनाया, यह उनका तात्कालिक निर्णय नहीं था। जब से बालक तुलसी संसार से विरक्त हुआ और कालूगणी के संपर्क में आया, तभी से कालूगणी की दृष्टि उस पर टिक गई थी। बालक तुलसी को दीक्षित कर कालूगणी एक प्रकार से निश्चित हो गए थे। मंत्री मुनि यह भी कहते थे कि कालूगणी ने कई संतों को तैयार करने के लिए प्रयत्न किया, पर सफलता नहीं मिली इसलिए उनका निश्चित होना स्वाभाविक था। आचार्यश्री तुलसी पर कालूगणी का ध्यान केन्द्रित हुआ, इस तथ्य का प्रबल साक्ष्य है आचार्यश्री पर उनका उत्तरोत्तर विकासमान वात्सल्य। उनके अनेक व्यवहारों के आधार पर साधु-साध्वियों और श्रावक समाज में भी आचार्यश्री तुलसी के भावी जीवन की संभावनाएं होने लगी थीं। ११७. वि.सं. १६८३ में कालूगणी का चातुर्मास गंगाशहर था। वहां उनका प्रवास आसकरणजी चौपड़ा के मकान में था। किंतु व्याख्यान देने के लिए ईशरचंदजी चौपड़ा की कोटड़ी में पधारना होता था। रात्रिकालीन प्रवचन का भी यही क्रम था। कालूगणी व्याख्यान देकर पुनः लौट आते तब उनके शयनपट्ट और बिछौने की व्यवस्था होती थी। यह काम मुनि शिवराजजी के हाथ में था। एक रात की घटना है। मुनि शिवराजजी अपने कार्य में व्यस्त थे। कमरे में गहरा अंधेरा था। कालूगणी वहीं टहलकदमी कर रहे थे और मुनि तुलसी उनको हस्तावलम्बन दिए हुए थे। मुनि शिवराजजी ने मुनि तुलसी को बीच में खड़ा देखकर कहा-बीच में क्यों खड़े हो? आचार्यश्री तुलसी उन्हें कुछ उत्तर दें, उससे पहले ही आचार्यश्री कालूगणी बोले-शिवराजजी! ऐसे कैसे बोलते हो? देखते नहीं, इस पर मेरा हाथ है। मुनि शिवराजजी ने विनम्रतापूर्वक अपनी भूल स्वीकार की। वहां उपस्थित संतों ने 'इस पर मेरा हाथ है' इस वाक्य से झलकते हुए श्लेषांलकार के दर्पण में मुनि तुलसी के समुज्ज्वल भविष्य को देखा। ११८. मध्याह्न का समय था। शैक्ष मुनि तुलसी पंचमी समिति जा रहे थे। संयत देह, युगप्रमित भूमि का पर्यवेक्षण करती हुई झुकी पलकें, तीव्र किन्तु सधी हुई गति। मार्ग में सरदारशहर के वरिष्ठ श्रावक श्रीचन्दजी गधैया मिले। उन्होंने शैक्ष मुनि को वंदन किया और किया समालोचनात्मक निरीक्षण। अपने मन पर एक गहरी छाप लेकर वे आचार्यश्री कालूगणी के पास पहुंचे और बोले-गुरुदेव! आज बालमुनि मुझे रास्ते में मिले। उन्हें जाने की जल्दी थी, फिर भी वे ईर्या समिति में पूर्ण सजग थे। मैंने अनुभव किया कि ये मुनि स्थिरयोगी और होनहार हैं। यह घटना वि. सं. १६८३, गंगाशहर चातुर्मास की है। ‘होनहार बिरवान के परिशिष्ट-१ / ३३६

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