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के तीन दल बन गए और छोटी-छोटी बात को लेकर मनोभेद होने लगा। साधु जीवन में ऐसा कुछ होना नहीं चाहिए, पर कभी-कभी छद्यस्थता की छोल काम कर जाती
है ।
कालूगणी उस समय हमीरगढ़ (मेवाड़) विराज रहे थे । स्थिति की जानकारी पाकर उन्होंने संतों को बुलाया और प्रशिक्षण देते हुए कहा - 'संतो! मानसिक दुराव साधना की दृष्टि से उचित नहीं है। तुम लोग अपनी व्यवस्था भी ठीक नहीं रख सकते तब यहां इतने साधु इकट्ठे होकर क्या करते हो ? आज से तुम लोगों की एक नई व्यवस्था हो रही है। अब अमुक-अमुक तीन-तीन संतों की परस्पर चित्तसमाधि है। सुखलालजी, गणेशमलजी आदि छह संतों की चित्तसमाधि मगनलालजी स्वामी के साथ है।' यह बात कुछ संतों को समाधिदायक नहीं लगी। उन्होंने पुनः निवेदन किया - 'गुरुदेव ! गलती हम सबकी है। इसका दण्ड सब संतों को नहीं मिलेगा तो हमारे मन पर असर रहेगा। हमारा अनुरोध इतना ही है कि स्हाज मंत्री मुनि का है, अतः उनका संबंध सबके साथ रहे।' इस अनुरोध में कालूगणी को औचित्य लगा। उन्होंने मुनि सुखलालजी आदि संतों को भी तीन-तीन की चित्तसमाधि में विभाजित कर दिया और मंत्री मुनि की चित्तसमाधि सब संतों के साथ जोड़ दी। कालूगणी की इस व्यवस्था से सबको संतोष हुआ और मंत्री मुनि के स्हाज में पुनः सौहार्द स्थापित हो गया ।
१३०. आचार्यश्री कालूगणी समभाव के साधक थे। वे अपने निकटस्थ या दूरस्थ किसी भी व्यक्ति की गलती को उपेक्षित नहीं करते थे। जिस किसी साधु से गलती होती, वे उसकी पूरी खबर ले लेते। मुनि चौथमलजी और मुनि सोहनलालजी कालूगणी के निकट रहने वाले साधुओं में थे। दोनों ही मुनि बड़े कर्मशील और आचार्य की दृष्टि की आराधना करने वाले थे। किंतु उनकी कुछ बातें ऐसी थीं जो कालूगणी को पसंद नहीं थीं । अनेक बार सजग करने पर भी उनमें विशेष परिवर्तन नहीं आया, तब कालूगणी ने सब संतों की सभा में उनको कड़ा उपालम्भ दिया। कड़ा भी इतना कड़ा कि सुनने वाले प्रायः साधु कांप उठे । यह घटना वि. सं. १६८६ सरदारशहर चातुर्मास ( गोठीजी की हवेली ) की है।
दोनों ही मुनियों ने उस उपालंभ को धैर्य और विनम्रता से सहन किया । कालूगणी तथा अन्य संतों ने भी उनकी सहनशीलता का अंकन किया। ऐसी घटनाओं से आज की पीढ़ी को शिक्षा लेनी चाहिए । जो व्यक्ति उपालंभ को सहना सीख लेता है, वह अपने जीवन को रूपान्तरित कर सकता है ।
परिशिष्ट - १ / ३४७