Book Title: Kaluyashovilas Part 02
Author(s): Tulsi Aacharya, Kanakprabhashreeji
Publisher: Aadarsh Sahitya Sangh

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Page 337
________________ का लेखन कर धर्मसंघ के पुस्तक भंडार को समृद्ध बनाया। साध्वी प्रतापांजी प्रारंभ में साध्वी मीरांजी के साथ रहीं । साध्वी मीरांजी पहले मातुश्री छोगांजी की सेवा में थीं । आचार्यश्री कालूगणी की उन पर पूरी कृपा थी । साध्वी मीरांजी के बाद साध्वी प्रतापांजी ने अग्रगण्य रूप में विहार किया । वे भीनासर में कई वर्षों तक स्थिरवासिनी रहीं। लंबे समय तक अस्वस्थ होने पर भी उन्होंने दृढ़ मनोबल और समभाव से वेदना सहन की । साध्वी हुलासांजी संसार - पक्ष में श्रीचंदजी गधैया की पुत्रवधू थीं । धर्मसंघ में एक निष्ठाशील और सुशील साध्वी के रूप में उनकी प्रतिष्ठा रही। बड़े घर से संबंधित होने पर भी उनके मन में इस बात का कोई गर्व नहीं था । श्रावक समाज को संस्कारी बनाना उनका विशेष लक्ष्य था । अंतिम वर्षों में उन्होंने मोमासर स्थिरवास किया और वहां काफी अच्छा काम किया। अपनी लेखन अभिरुचि के आधार पर ही वे भगवती सूत्र का लेखन कार्य पूरा कर पाईं। ११२. साध्वी सोनांजी ( सरदारशहर) संघ और संघपति के प्रति गहरी आस्था रखती थीं। उनका समर्पण भाव सहज था । वे पहले साध्वीप्रमुखा श्री जेठांजी के पास रहती थीं । वृद्धावस्था के कारण जब वे थली में स्थिरवासिनी हो गईं तब साध्वी सोनांजी को आचार्य श्री की सेवा में भेज दिया। साध्वी सोनांजी समुच्चय की गोचरी तथा तासक, पात्र आदि रंगने का कार्य अत्यंत उत्साह और प्रसन्नता से करती रहीं। अंतिम वर्षों में उन्होंने पड़िहारा में स्थिरवास किया । पड़िहारा की जनता में उनका अच्छा प्रभाव रहा। वहां के लोग अब भी कहते हैं कि साध्वी सोनांजी ने पड़िहारा को सोना कर दिया । ११३. साध्वीश्री अणचांजी हमारे धर्मसंघ की तपस्विनी साध्वी थीं । आचार्यश्री तुलसी ने षष्टिपूर्ति समारोह (सं. २०३१ ) के अवसर पर उनको 'दीर्घ तपस्विनी' के रूप में सम्मानित किया । साध्वीश्री अणचांजी के जीवन में तपस्या के अतिरिक्त भी कुछ ऐसी विशेषताएं थीं, जिनके कारण धर्मसंघ में उनका विशेष स्थान बना । उन विशेषताओं में एक है कठिन काम करने का उत्साह । एक बार ब्यावर में एक साध्वी बीमार हो गई। उन्हें सुजानगढ़ लाना जरूरी था। साध्वी अणचांजी ने उनको कंधे पर बिठाकर सुजानगढ़ पहुंचा दिया। इस प्रकार कठिन से कठिन काम करने में वे सबसे आगे रहती थीं । साध्वी प्यारांजी (मुनि मांगीलालजी की संसारपक्षीया माता) श्रीडूंगरगढ़ में थीं। उन्हें वहां से विहार कराना था, पर प्रकृतिगत वैचित्र्य के कारण वे वहां से विहार करना नहीं चाहती थीं। अनेक साधु-साध्वियां उन्हें समझाकर हार गईं, किंतु परिशिष्ट-१ / ३३५

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