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को सौंपा। उन्होंने उन मुनियों को बड़ी कुशलता से सम्भाला। फलस्वरूप 'तुलसी पाठशाला' की नींव लग गई। उसके बाद दीक्षित होने वाले मुनियों में जो भी प्रतिभासम्पन्न और योग्य मुनि होते, उन्हें मुनि तुलसी को सौंप दिया जाता। यह क्रम तब तक बराबर चलता रहा, जब तक मुनि तुलसी के कंधों पर आचार्य पद का दायित्व नहीं आ गया।
___ 'तुलसी पाठशाला' इतनी व्यवस्थित चली कि उसमें जितने विद्यार्थी रहे, उनकी प्रतिभा में निखार आता गया। इस पौशाल से निकलने वाले विद्यार्थी मुनियों में से कुछ नाम हैं-मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ), मुनि बुद्धमलजी, मुनि दुलीचन्दजी, मुनि जंवरीमलजी आदि।
८७. वि. सं. १६६२ की बात है। एक दिन मुनि तुलसी आचार्यश्री कालूगणी की उपासना में बैठे थे। शिक्षा का प्रसंग चला तो उन्होंने निवेदन किया-'गुरुदेव! अपने यहां साध्वियों की दीक्षाएं काफी होने लगी हैं। साध्वियां प्रतिभासंपन्न और ग्रहणशील भी हैं, पर उनकी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। शिक्षा के अभाव में इस बढ़ती हुई संख्या का परिणाम अच्छा कैसे होगा?' । ___मुनि तुलसी ने निवेदन तो कर दिया, किंतु फिर उन्होंने अनुभव किया कि गुरुदेव को इस प्रकार निवेदन नहीं करना चाहिए था। मुनि तुलसी ने इस प्रसंग में कुछ भी सोचा हो, कालूगणी ने इसको बहुत गंभीरता से पकड़ा। अंतिम समय में अपने उत्तराधिकारी को धर्मसंघ की बागडोर सौंपकर उन्होंने सबसे पहले साध्वीशिक्षा का काम हाथ में लेने का इंगित किया। मुनि तुलसी के निवेदन, कालूगणी के संकेत तथा फिर आचार्यश्री तुलसी के परिश्रम, प्रेरणा और प्रोत्साहन ने साध्वी-समाज में शिक्षा के अनेक नए आयाम उद्घाटित कर दिए।
८८. घटना वि.सं. १६७६ की है। आचार्यश्री कालूगणी उस समय बीकानेर प्रवास कर रहे थे। एक बार वहां पण्डित चन्द्रशेखरजी आचार्यश्री के दर्शन करने आए। वार्तालाप के सिलसिले में मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने जिज्ञासा की-रघवंश महाकाव्य में एक प्रयोग आता है-'कथं द्वयेषामपि मेदिनीभृताम्'। इस पद में 'द्वयेषां' का प्रयोग अशुद्ध नहीं है क्या?
पण्डितजी ने उक्त प्रश्न की पृष्ठभूमि में रहे जिज्ञासाभाव को गौण कर दिया और यह समझा कि ये जैन मुनि हमारे प्राचीन मनीषियों की कृतियों में दूषण निकाल रहे हैं। इस भ्रांत धारणा ने उनको उत्तेजित कर दिया। अब वे उस शब्द को सही प्रमाणित करने के लिए धाराप्रवाह संस्कृत में बोलते ही गए। उनकी उत्तेजना और भ्रांत धारणा को निराकृत करना आवश्यक था। पण्डितजी
३२० / कालूयशोविलास-२