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होने दो।' सवेरा होने तक प्रतीक्षा कर सके, ऐसी स्थिति उसकी नहीं थी। आखिर नाई को एक उपाय सूझा।
वे जिस कमरे में सो रहे थे, उसकी एक बारी नीचे मिठाई-भण्डार में खुलती थी। नाई बोला- 'मैं तुम्हें रस्से से लटकाकर नीचे इस कमरे में उतार देता हूं। पेट भरकर खा लो। जब ऊपर आना हो तो मुझे संकेत कर देना-लै ताण।' उधर नाई को गहरी नींद आ गई। वह पौ फटने के समय जगा। तब तक घर में हाहाकार मच गया। घर के छोटे-बड़े सभी व्यक्ति जग गए। मिष्टान्न-भंडार के समीप से गुजरते समय 'लै ताण, लै ताण' की शब्दावली ने- उनके मन में भूत-प्रेत का भय उत्पन्न कर दिया।
नाई को अपनी भूल का भान हुआ। वह तत्काल नीचे आया और बोला-'क्या बात है?' उन लोगों ने कहा--'मिष्टान्न-भंडार में 'लहताण' घुस गई।' नाई बोला-'बहुत बुरा हुआ। 'लहताण' को निकालना भी कठिन है। मैंने अपने गांव में एक-दो बार ऐसा काण्ड देखा है। घर के सब सदस्यों ने नाई की मिन्नतें की कि आप जैसे-तैसे हमें इस संकट से बचाएं।' नाई ने कहा-'मैं प्रयास करके देखता हूं। आपके सौभाग्य से सफल हो जाऊं तो बहुत अच्छी बात है। आप मुझे एक लाठी और लबादा दे दीजिए। घर के सब लोगों को कमरों के भीतर भेज दीजिए। कोई भी बीच में आ गया तो 'लहताण' उसमें घुस जाएगी। सब लोगों के चले जाने पर उसने दरवाजा खोला। जामाता ने उसे देखते ही कहा- 'यह क्या कर दिया ?' नाई ने अपनी भूल स्वीकार कर बिगड़ती हुई स्थिति को सुधारने का आश्वासन दिया। उसने वह लबादा जंवाई पर डाल दिया और लाठी से बर्तनों को तोड़ने लगा। कुछ समय बाद वह उसको आगे करके दौड़ा और गांव के बाहर तक छोड़ आया। घर लौटकर उसने सब लोगों को इकट्ठा किया और कहा-'आपका थोड़ा नुकसान तो हो गया, पर 'लहताण' को ऐसा धमकाया है कि वह फिर कभी इधर आने का साहस ही नहीं कर सकेगी।'
३३. बड़नगर महोत्सव के अवसर पर मुनि तुलसी द्वारा रचित पद्य, जो संघीय गरिमा को अभिव्यक्ति देते हैं१. 'लोक बहकान हेत बात यूं बणाय कहै,
तेरापंथी दान-दया मूल स्यू उखाड़ दी। गउवन को बाड़ो तामे आग को लगाई नीच, ताको कोउ खोलै तामे मनाही पुकार दी।। भूखे और प्यासे दीन दुखियन को देवै दान,
२६० / कालूयशोबिलास-२