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अपने हाथ से दवा दी तथा पथ्य की व्यवस्था करवाई। इस कृपाभाव से मुनि तुलसी को जो तोष मिला वह तो अनिर्वचनीय है ही, दर्शक मुनियों ने भी उस समय विशेष आह्लाद का अनुभव किया।
६३. वि. सं.१६८८ की बात है। आचार्यश्री तुलसी चर्म-विकृति के कारण अस्वस्थ हो गए। पूरे शरीर पर दाद-से हो गए, जो पहले लाल-लाल होते, फिर सफेद हो जाते। कई उपचार किए गए, किंतु लाभ नहीं हुआ। मुनि तुलसी के मन में एक प्रकार से बहम हो गया कि न जाने क्या हो गया? कालूगणी को पता चला तो उनको बुलाकर फरमाया- 'बहम नहीं करना चाहिए, सब ठीक हो जाएगा।'
___ कालूगणी को लाडनूं से विहार कर मर्यादा-महोत्सव के लिए छापर पधारना था। लाडनूं का डॉ. विभूतिभूषण मुनि तुलसी की चिकित्सा कर रहा था। इसलिए उनको लाडनूं रखना जरूरी था। कालूगणी स्वयं उन्हें दूर रखना नहीं चाहते थे और वे रहना भी नहीं चाहते थे। फिर भी आवश्यकतावश वैसा प्रसंग उपस्थित हो गया।
कालूगणी ने सोचा-मेरे से दूर रहने के कारण इसका मन खिन्न न हो जाए, अतः आत्मीय भाव व्यक्त करते हुए कहा-'तुलसी! तुझे कुछ दिन यहां रहना है। मुनि चंपालाल तुम्हारे पास है ही। और बता, तू अपने पास किस-किस को रखेगा।' मुनि तुलसी द्रवित हो गए। वे कुछ बोल नहीं पाए। कालूगणी ने कृपा कर नौ संतों को वहां रखा। मंत्री मुनि मगनलालजी ने कहा- 'तुम्हारी इच्छा हो तो मैं यहां रह जाऊं।'
एक बाल मुनि के प्रति यह असीम करुणा मुनि की अपनी योग्यता को तो प्रमाणित करती ही है, साथ ही कालूगणी की कोमलता और परखने की क्षमता का भी सबल उदाहरण है।
लगभग तीन माह मुनि तुलसी लाडनूं रुके। अन्य औषधियों के साथ तेल मालिश से उस बीमारी में विशेष लाभ हुआ। स्वास्थ्य-लाभ कर उन्होंने रतनगढ़ में पूज्य कालूगणी के दर्शन प्राप्त किए।
६४. वि. सं. १६६० में कालूगणी सुजानगढ़ से विहार कर डीडवाना, खाटू होते हुए ईडवा पधारे। वहां रात्रिकालीन व्याख्यान के समय उन्होंने मुनि तुलसी को अपने पास बुलाकर कहा-'तुलसी! व्याख्यान में गाने का प्रसंग हो, वहां तू गाया कर, उसकी व्याख्या मैं करूंगा।' वहां दो दिन तक यह नया क्रम चला।
इस नए क्रम के पीछे क्या रहस्य है, यह जिज्ञासा कई मुनियों के मन में जाग्रत हुई। कालूगणी ने इस संदर्भ में फरमाया-'मघवागणी व्याख्यान में कई
परिशिष्ट-१ / ३०६