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मंगल वचन
दोहा
१. परमारथ प्रतिपथिक हित, पाप- पान्थ-पलिमन्थ । जयतु जयतु जगती-तले, त्रैशल तेरापंथ ।।
जो परमार्थ के प्रत्येक पथिक के लिए हितकर और असदाचार-पंथ के पथिक के लिए प्रतिरोधी है । वह त्रिशलानंद वर्धमान का अनुगामी तेरापंथ इस धरा पर विजयी बने, विजयी बने ।
२. पंच याम प्रांगण सघण, कुट्टित मणि- वैडूर्य ।
प्रतिपल प्रोद्भासित करै, सजग संघपति सूर्य ।।
वैडूर्यमणि से जड़ित पांच महाव्रत रूपी सघन प्रांगण को जागरूक संघपति सूर्य प्रतिपल प्रकाशित करता है ।
३. अनणु-अणुव्रतमय वितत, प्रस्फुट है फुटपाथ । उभय पास शुभभा समन, व्रतिगन विटपि - व्रात ।।
उसके महाव्रत और अणुव्रत रूपी दो विस्तृत और प्रस्फुट फुटपाथ बने हुए हैं। उसके दोनों पावों में कल्याणी आभा और पवित्र मनवाले साधु और श्रावक रूपी वृक्षसमूह लगा हुआ है।
४. कलि- करेणु प्रक्षिप्त यदि, हो रज - रेणु - रबाब |
तो दुर्जन प्रस्तुत सतत, करधृत खलपू छाब ।।
यदि कलिकाल रूपी हाथी के द्वारा रज- रेणु का समूह प्रक्षिप्त हो तो दुर्जन व्यक्ति हाथ में बुहारी और छाब लेकर उसकी सफाई के लिए सदा तैयार रहते हैं ।
१७४ / कालूयशोविलास-२