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कल्पसूत्रे : किन्तु वे कायोत्सर्ग से लेश मात्र मी चलायमान न हुए। तब क्रोधयुक्त होकर दूसरी बार चण्डको
शिकस्य सशब्दार्थे , और तीसरी बार भी प्रभु को डंसा, तथापि प्रभू गिरे नहीं। तत्पश्चात् वह रोष के साथ
भगवदुपरि॥२६२॥ | प्रभु को देखता रहा । शांत आकार वाले, अनुपम कांति से मन्डित, मृदुस्वभाव वाले, विपप्रयोगः
चण्डको मधुरता से अलंकृत और क्षमाशील भगवान् वीर स्वामी को देखते हुए चंडकौशिक ||
शिकप्रति॥ सर्प की, प्रलयकाल की आग के समान, विष से परिपूर्ण आंखें बुझ गई अर्थात् शांत
बोधश्च हो गई । तब क्रोध का पुंज उग्र क्रोधी चंडकौशिक सर्प कुंठित हो गया। वीर प्रभु की शांति के प्रभाव से उसका क्रोध शांत हो गया । चंडकौशिक की क्रोध-ज्याला पर भगवान् महावीर ने क्षमा का जल सींच दिया, अर्थात् अपनी क्षमा एवं शांति के प्रभाव से प्रभु ने उसके क्रोध को नष्ट कर दिया। क्षमा का जल सींचने से वह आकृति से भी शांत हो गया और प्रकृति से भी शांत हो गया। इस प्रकार चडकौशिक को शांत देखकर वोर प्रभु ने उससे कहा-हे चंडकौशिक ! तुम बूझो, बूझो बोध प्राप्त करो, बोध
॥२६२॥