________________
पापपरिहारपूर्वक धर्मस्वाकारः
॥६१५॥
कल्पक्षत्रे करण चरण रूप कल्प को स्वीकार करता हूं। आत्मा के मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त्व -सशब्दार्थे Mall को स्वीकार करता है, अज्ञान को त्यागकर ज्ञानको अङ्गीकार करता हूं, नास्तिक वादरूप
अक्रियाको छोडकर आस्तिकवाद रूप क्रिया को ग्रहण करता हूं, आत्मा के मिथ्यात्व परिणाम रूप अबोधि को छोडकर सकल दुःखनाशक जिनधर्म प्राप्ति रूप बोधि को ग्रहण करता हूं और जिनमत से विरुद्ध पार्श्वस्थ निह्नव तथा कुतीथि सेवित अमार्ग को छोडकर ज्ञानादि रत्नत्रय रूप मार्ग को स्वीकार करता हूं। उसी प्रकार जो अतिचार स्मरण में आता है या छद्मस्थ अवस्था के कारण स्मरण में नहीं आता है तथा जिसका प्रतिक्रमण किया हो या अनजानवश जिसका प्रतिक्रमण नहीं किया हो उन सब देवसिक अति
चारों से निवृत्त होता हूं। इस प्रकार प्रतिक्रमण करके संयत विरतादिरूपं निज आत्मा ॐ का स्मरण करता हुआ सब साधुओं को वन्दना करता है । संयत [वर्तमान में सकले | सावध व्यापारों से निवृत] विरत [पहले किये हुए पापों की निन्दा और भविष्यकालके
॥६१५॥