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सामाचारी
वर्णनम्
कल्पसूत्रों सशब्दार्थ ॥६८०॥
मूलभू-पडिलेहणं कुणंतो, मिहो कहं कुणइ जणवयवहं वा।
देइ व पच्चक्खाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा ॥२९॥ पुढवि आउक्काए, तेउवाऊवणस्सइतसाणं ।
पडिलेहणापमत्तो, छण्हपि विराहओ होइ ॥३०॥ भावार्थ-प्रतिलेखना करता हुआ जो मुनि कथा करता है अथवा जनपद कथा स्त्री | आदि की कथा करता है, अथवा दूसरों को प्रत्याख्यान देता है, वाचना देता है, या
ग्रहण करता है, वह असावधान मुनि पृथ्वीकाय अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्प| तिकाय एवं त्रसकाय इन छहकाय के जीवोंका विराधक होता है ॥२९-३०॥ मूलम्-पुढवी-आउक्काए, तेऊ वाऊ-वणस्सइत्तसाणं ।।
पडिलेहणा आउत्तो, छण्हपि आराहओ होई ॥३१॥
भाSEECHES
॥६८०॥