Book Title: Kalpsutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 909
________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥८९३॥ मूलम् - वरकणग तविय चंपग, विमलवर कमल गव्भसरिस वण्णे । भविय जणहिअय दइए, दयागुणविसारए धीरे ॥ ४३ ॥ भावार्थ- अच्छा तपाया हुआ सुवर्ण समान, तथा चम्पा के फूल समान विकसित पद्म कमल के गर्भ समान शरीर का वर्ण धारक, भविक जीवों के हृदय को वल्लभकारी दया के गुण प्रधान विचक्षण ॥ ४३ ॥ मूलम् - अड्ढभरहप्पहाणे, बहुविह सज्झाय सुमुणिणियपहाणे ॥ अणुउगिय बरवसमे नाइयलकुलवंसनंदिकरे ॥४४॥ भावार्थ - धैर्यवंत, आधे भरतक्षेत्र में युग प्रधान बहुत प्रकार के स्वाध्यायादि युक्त, अच्छे जानकार, सुमुनिश्वर के पंथ के साधक, सुवीनीत, उत्तम अर्थ के कथक प्रधान वृषभसमान, श्री ज्ञातकुल महावीर के वश में आनन्द के करता |४४ | गणधराणां नामादिकम् ॥८९३ ॥

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