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कल्पसूत्रे संशब्दाय
॥४३९॥
श्रोता के मन में तनिक भी सन्देह न रह जाय । १२-अवहय अन्नोन्नत्तरत्त-वचन का | |भगवतो
३५ वचनानिर्दोष होना जिससे श्रोताओं को शंका-समाधान न करना पडे । १३-हिययगाहित्त पर -कठिन विषय को भी सरल ढंग से कहना, श्रोताओं के चित्त को आकर्षित कर लेना। १४-देसकालवइयत्त-देशकाल के अनुसार कथन करना । १५-तत्ताणुरूवत्त-वस्तु के वास्तविक स्वरूप के अनुरूप कथन करना । १६-अवकिन्नप्पसीयत्त-प्रकृत वस्तु का यथोचित विस्तार के साथ व्याख्यान करना, अप्रकृति का कथन नहीं करना, प्रकृत का भी अत्यधिक अनुचित विस्तार नहीं करना । १७-अन्नोन्नपगहियत्त-पदों और वाक्यों का परस्पर संबद्ध होना । १८-अहिज्जायत्त-भूमिका के अनुसार विषय का निरूपण करना । १९-अइ सिनीधमहुरत्त-स्निग्धता और मधुरता से युक्त होना । २०-अवरमम्मवेहित्त-दूसरे के मर्म-रहस्य का प्रकाश न करना २१ अत्थ धम्मभासा अनवेयत्त -मोक्ष रूप अर्थ तथा श्रुतचारित्र धर्म से युक्त होना । २२-उयारत्त-प्रतिपाद्य विषय
M॥४३९।।
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