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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
भगवत आचारपरिपालनविधे
॥३३२॥
वर्णनम्
! दोषों से रहित तथा कल्पनीय आहारकी गवेषणा करके भगवान् ने उसका सम्यक्
मन, वचन काय के व्यापार के साथ अर्थात् समभाव से सेवन किया । भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए भगवान् इस के अभिलाषी अर्थात् जिह्वा के विषय-रस के लोलुप, काकआदि प्राणियों को आहार की खोज में स्थित देखकर, स्वयं ही उस स्थान से निवृत्त हो जाते थे । इसके अतिरिक्त अपने पहुंचने से पहले खडे शाक्य आदि श्रमण को, ब्राह्मण को; अथवा भीख मांगकर जीवन-निर्वाह करने बाले भिखमंगे को अथवा किसी विशेष ग्राम का आश्रय लेने वाले भिक्षुक को, साधु को या चाण्डाल को देखकर उन श्रमण आदि को भोजन-लाभ में विघ्न न हो जाए, ऐसा विचार करके उस स्थान से वापस फिर जाते थे। तथा लोगों में उक्त श्रमण आदि के अविश्वास का परिहार करते हुए प्राणातिपात आदि पापों से बचते हुए सदैव ईर्यासमितियों से सम्पन्न होकर, धीरे-धीरे फिर कर दूसरे स्थान पर आहार की गवेषणा करते थे। दूसरे स्थान
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