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ग्रन्थादि लिखनेमें व्यय किया करें उन्हें चाहिये कि वे जीविकाके लिये कोई ऐसी ही निराकुलताकी नौकरी तलाश कर लें । समाचारपत्रों में लेखादि लिखकर उससे उदरनिर्वाह करना उसे बिलकुल पसन्द न था । क्योंकि ऐसे लेख एक तो जल्दी जल्दी ज्यों त्यों पूरे किये जाते हैं, दूसरे लेखकको वही लिखना पड़ता है जो उस समाचारपत्रके पक्षके अनुकूल होता है । और, ऐसी दशामें अकसर ऐसे मौके आते हैं जब लेखकको अपनी सदसद्विवेक बुद्धिको एक ओर ताकमें रख देना पड़ता है। इससे यदि कोई चाहे कि मैं नामी लेखक हो जाउँगा-मुझमें उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखनेकी शक्ति आ जायगी-तो यह उसका भ्रम है। शक्तिकी वृद्धि करना तो दूर रहा, वह अपनी गाँठकी पूँजी भी खो बैठेगा। यही दशा ग्रन्य-लेखनकी भी है। अच्छे ग्रन्थोंकी कदर होनेके लिये समय चाहिये। प्रकाशित होते ही किसी ग्रन्थकी कदर नहीं होती है । परन्तु जो उदरनिर्वाहके लिये ग्रन्थ लिखता है उसे इतना सब नहीं । इसलिए यह कार्य वह लोगोंकी रुचिका विचार करके करता है । उसका लक्ष्य इसी ओर अधिक रहता है कि मेरा ग्रन्थ लोगोंको पसन्द आवे और उसकी विक्री अधिक हो। इसलिये ऐसे ग्रन्थोंका मूल्य उतना ही होता है जितना कि उसे पढ़नेवालोंसे तत्काल ही प्राप्त हो जाता है । इससे, और ऐसे ही कई करणोंसे, मिलका यह सिद्धान्त हो गया था कि ग्रन्थलेखनका कार्य उदरनिर्वाहके लिये न करना चाहिये । जो इस कार्यसे स्थायी कीर्ति उपार्जन करना चाहते हैं और यह इच्छा रखते हैं कि हमारे ग्रन्थ अच्छे बनें उन्हें उदरनिर्वाहके लिये कोई दूसरा उद्योग करके उससे जो समय बचे उसमें ग्रन्थलेखन या निबंधलेखनका कार्य करना चाहिये । इससे दो लाभ होते हैं । एक तो यह कि जो ग्रन्थ लिखे जाते हैं वे लोगोंकी रुचि, भीति, लिहाज