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क्रमसे उसीका मण्डन करनेवाली शिक्षा पाठशालाओंमें भी दी जाने लगती है । परिणाम इसका यह होता है कि जिन प्रमाणोंसे पहले यह निश्चय किया गया था कि उक्त विचार-समूह पुराने विचारोंकी अपेक्षा अच्छा है उन प्रमाणोंको ही लोग एक प्रकारसे भूल जाते हैं। क्योंकि मनुष्य जिन विचारोंको निश्चित और निर्धान्त समझने लगता है उनके प्रमाणोंकी ओर , उसकी सहज ही उपेक्षा होने लगती है। और, ऐसा होते ही पुराने विचारों या मतोंके समान ये नवीन मत भी वेद-वाक्य बन जाते हैं और उन्हींकी सत्ता प्रबल होकर मनुष्यके विचारोंको सङ्कुचित करने लगती है-उनकी बाढ़को रोक देती है । आचार-विचारोंकी समतासे इसी बातका बड़ा भारी भय रहता है। __ अब यह बात विचारणीय है कि इन नवीन विचारोंका भी ऐसा ही अनर्थकर परिणाम होगा या नहीं-अर्थात् ये वेद-वाक्य बन जावेंगे या नहीं ? हमारी समझमें इसके होने न होनेका सारा दारोमदार मनुष्य-जातिकी बुद्धिपर है। यदि इस बातका खयाल रक्खा जायगा कि चाहे कोई नवीन मत हो; चाहे प्राचीन हो, उसपर विना पुष्ट प्रमाण मिले श्रद्धा न करनी चाहिए, तो उक्त अनर्थकारक परिणाम न होगा । और, यदि न रक्खा जायगा-जहाँ तक हम सोच सकते हैं, न रक्खे जानेकी ही सम्भावना अधिक है तो उस समय स्वाधीनतामें प्रतिपादन किये हुए सिद्धान्तका अतिशय उपयोग होगा।
स्वाधीनतामें नूतनत्व । यदि पूछा जाय कि इस ग्रन्थमें नयापन क्या है ? तो इसका उत्तर यह है कि जो सिद्धात सर्वज्ञात हैं जिन्हें सब जानते हैं-उन्हींका