Book Title: John Stuart Mil Jivan Charit
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 78
________________ ७४ मेम्बरीके समयके दूसरे कार्य । इस समय मिलकी दूर दूर तक ख्याति हो गई थी। वह एक प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता और अर्थशास्त्रका पण्डित गिना जागे लगा था। इस लिए अकसर उसके पास दूर दूरसे पत्र आया करते थे। उन पत्रोंमें अनेक प्रकारके प्रश्न और सूचनायें रहती थीं । बहुतसे पत्र ऐसे भी आते थे जिनमें सिक्केमें कुछ सुधार करके सारे संसारको सुखी और सम्पत्तिमान करनेकी उथली युक्तियाँ लिखी रहती थीं । इनमेंसे उन पत्रोंका वह सविस्तर उत्तर देता था जिनसे जिज्ञासुओंकी शङ्काओंका समाधान हो जाय और उन्हें कुछ लाभ हो । परन्तु पीछे पीछे यह रोग बहुत बढ़ने लगा। तब उसे बहुत ही परिमित उत्तर देनेके लिए लाचार होना पड़ा । इतनेपर भी उसके पास बहुतसे महत्त्वपूर्ण पत्र आते रहे और वह उनका यथोचित उत्तर भी देता रहा । बहुतसे पत्र ऐसे भी आते थे जिसमें उसके ग्रन्थोंकी दृष्टिदोष आदिसे रही हुई अशुद्धियोंकी सूचनायें रहती थीं। इसके सिवा उन दिनों वह पारलियामेंटका सभासद था; इसलिए जिसके जीमें आता वही पत्रके द्वारा अपना रोना उसके आगे रोया करता था। परन्तु यह बात बहुत ही उल्लेख योग्य है कि वेस्ट मिनिस्टर वालोंने अपने वचनकी पूरी पूरी पालना की । उन्होंने उससे कभी किसी विषयमें आग्रह नहीं किया कि आप अमुक विषयकी चर्चा पारलियामेंटमें करें ही । वहाँ वालोंने इस प्रकारके पत्रादि लिखकर भी कभी उसको तग नहीं किया । यदि किसीने कभी कुछ लिखा भी, तो यही कि “ मेरी सिफारिश करके नौकरी लगवा दीजिए " और उसका उसे उत्तर दिया गया कि “ मैं यह संकल्प करके सभासद हुआ हूँ कि प्रधानमंडलसे कभी किसीकी सिफारिश नहीं करूँगा।"

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