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होने लगे और उनके स्थानमें नये नये विचार जमने लगे। इसी समय मिलके हाथ सेंट सायमनके कई ग्रन्थ आगये । सेंट सायमन फ्रान्सका प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता था । सोशियालिस्ट पंथकी जड़ इसीने जमाई थी। इन ग्रन्थों में उसने बहुत विलक्षणता देखी और उसके प्रधान शिष्य आगस्ट काम्टीका एक ग्रन्थ पढ़कर तो वह विस्मित हो गया। इन ग्रन्थोंमें कुटुम्बकी स्थितिके. सुधारनेका जो सिद्धान्त था वह उसे बहुत ही पसन्द आया । कुटुम्बमें पुरुषों और स्त्रियोंका अधिकार वराबर होना चाहिए। वर्तमान समयमें जो पुरुष-स्त्रीका सेव्यसेवक सम्बन्ध है वह हानिकारक है। उसे तोड़कर समानाधिकारयुक्त नवीन सम्बन्ध स्थापित होना चाहिये । इस विचारकी उसने शतमुखसे प्रशंसा की । समाजके जुदा जुदा पेशा करनेवाले लोगोंको अपना पूँजी एकत्र करके संयुक्त श्रम करना चाहिये और उससे जो मुनाफा हो उसे बाँट लेना चाहिये। सोशियालिस्टोंकी समाज-स्थिति सुधारनेकी यह कल्पना यद्यपि उसे पसन्द आई, परन्तु इसका व्यवहारमें परिणत होना उसे असंभव मालूम हुआ। भूमि आदि सम्पत्तिके भोगनेका अधिकार वंशपरम्परासे एक ही कुटुम्बको प्राप्त होना समाजके लिये बहुत ही हानिकारक है-इत्यादि विचारोंको भी उसने मन लगाकर पढ़ा, परन्तु वे सर्वांशमें उसे अच्छे न मालूम हुए। ___ अब तक उसका यह मत था कि मनुष्य केवल परिस्थितिका दास है । अर्थात् मनुष्यके आसपास रीति रवाज आदिकी जैसी स्थिति होती है उसीके अनुसार उसका स्वभाव बनता है । परिस्थिति शब्दका यदि इतना संकुचित अर्थ किया जाय तो सचमुच ही यह मत चित्तको उद्विग्न करनेवाला है । क्योंकि इस दशमि इस मतमें और भारतवासियोंके मतमें कुछ अधिक अन्तर नहीं रह जाता।